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को देख कर उसने सोचा कि, “पहले ही दिन में मुझे इस पाखंडी के दर्शन हुए, यह बहुत बड़ा अपशकुन हुआ । इसलिए इसके ऊपर ही लोहे का घण मारकर इस अमंगल को दूर करूं । तब वह दुष्ट प्रभु को मारने के लिए घण उठाकर दौड़ा। उस वक्त इंद्र को विचार हुआ कि 'अभी प्रभु कहाँ होगे ? अवधिज्ञान से देखने पर उस लुहार को घण मारने को उद्यत हुआ जानकर इंद्र तत्काल ही वहाँ आए और उस घण को उसी के सिर पर ही पटकाया । इससे मुश्किल से रोगमुक्त होने पर भी धण के प्रहार से वह लुहार यमद्वार में पहुँच गया। इंद्र प्रभु को नमस्कार करके सौधर्मकल्प में गए।
(गा. 605 से 610)
वहाँ से विहार करके प्रभु ग्रामक नामक गाँव के पास में आये । वहाँ बिभेलक नामक उद्यान में आए। वहाँ बिभेलक नाम के यक्ष के मंदिर में प्रभु कायोत्सर्ग में रहे। उस यक्ष ने पूर्वभव में समकित की स्पर्शना की हुई थी, इसलिए उसने अनुरागपर्वक दिव्य पुष्पों एवं विलेपनादिक से प्रभु की पूजा की।
(गा. 611 से 613)
वहाँ से प्रभु शालिशीर्ष गांव में पधारे। वहाँ उद्यान में प्रतिमा धारण करके रहे। उस समय माघ मास वर्त रहा था । वहाँ कटपूतना नामकी एक वाणव्यंतरी देवी थी। वह प्रभु के त्रिपृष्ट के जन्म में विजयवती नाम की पत्नि थी । उस भव में उसे अच्छी तरह मान न मिलने से वह रोष में भरकर मृत्यु को प्राप्त हुई । कुछ भवों में भ्रमण कर के पश्चात् वह मनुष्य भव में आई । उस भव में बालतप करके मृत्यु के प्राप्त कर इस भव में वह व्यंतरी हुई थी । पूर्व भव के बैर से और प्रभु के तेज को सहन न कर सकने से उसने प्रभु के पास आकर तापसी रूप की विकुर्वणा की । तब सिर पर जटा धारण कर, वल्कल वस्त्र पहन कर, हिम जैसे शीतल जल में शरीर को डुबाकर प्रभु के ऊपर ऊँची खड़े रहकर फिर पवन का विस्तार करके अर्थात् जोर से हवा चलाकर सीसोलिया की तरह शरीर पर से जल के अति दुःसह शीतल बिंदु प्रभु के ऊपर गिराने लगी । जटा के अग्र भाग से और वल्कल में से गिरते जलबिंदुओं से प्रभु को भिगो दिया। यदि कोई अन्य पुरुष होता तो वह शीत से ही ठर जाता अर्थात् उसके प्राण चले जाते । इस प्रकार सम्पूर्ण रात्रि में शीतोपसर्ग सहन करके प्रभु अत्यंत कर्मों को खपावे वैसा धर्मध्यान विशेष रूप से दीप उठा एवं अनुत्तर विमानवासी देवों की भांति
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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