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करके रहे एवं गोशाला गांव में गया। उस गाँव में बहुश्रुत और अनेक शिष्यों के परिवार से परिवृत्त श्री पार्श्वनाथ के शिष्य वृद्ध नंदीषेणाचार्य आये थे। वे गच्छ की सर्व चिंता छोड़कर जिनकल्प के प्रतिकर्म को करते थे। उनको देखकर गोशाला मुनिचंद्रचार्य की तरह उनका हास्य करके प्रभु के समीप आया। वे महर्षि नंदीषेण रात्रि में उस गांव के किसी चौक में धर्मध्यान करने के लिए कायोत्सर्ग करके स्तंभ की भांति स्थिर रहे। चौकीदारी करने निकले ग्रामरक्षकों ने उनको चोर की भ्रांति से मार डाला। वे शीघ्र अवधिज्ञान प्राप्त करके मृत्यु प्राप्त कर देवलोक में गए। देवताओं ने उनकी महिमा की। यह देखकर गोशाला ने वहाँ आकर उनके शिष्यों का पूर्ववत् तिरस्कार किया।
(गा. 573 से 580) वहाँ से विहार करके प्रभु कूपिका गाँव के समीप आए। वहाँ आरक्षक लोगों ने प्रच्छन्न चर पुरुष की भ्रांति से गोशाला सहित प्रभु को हैरान किया। उस समय 'निरपराधी ऐसे किसी रूपवान्, शांत और देवार्य को गुप्तचर की भ्रांति से आरक्षक मार रहे हैं।' ऐसा वार्तालाप लोग करने लगे। यह बात श्री पार्श्वनाथ जी की प्रगल्भा और विजया नाम की दो शिष्याओं ने जिन्होंने चारित्र छोड़कर निर्वाह के लिए परिव्राजिका का रूप धारण किया था। वे उस गाँव में रहती थी, उन्होंने सुना। इससे 'कहीं वे प्रभु न हों?' ऐसी शंका करती हुई वे वहाँ आई। वहाँ भगवंत को वैसी स्थिति में देखा। तब उन्होंने प्रभु को वंदना करके आरक्षकों को कहा कि, 'अरे मूर्ख! ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र श्री महावीर हैं, क्या तुम ये नहीं जानते ? अब जल्दी उनको छोड़ दो, क्योंकि ये समाचार यादि इंद्र जानेंगे तो तुम्हारे उपर प्राणहर वज्र छोड़ देगें।" ऐसा सुनकर उन्होंने प्रभु को छोड़ दिया और बारम्बार क्षमा मांगी। वहाँ से प्रभु विशालापुरी तरफ चले। आगे जाने पर दो मार्ग आए। तब गोशाला ने कहा कि, 'हे नाथ! मैं आपके साथ नहीं आऊंगा, क्योंकि जब मुझे कोई मारता है, आप तटस्थ होकर देखा ही करते हो, और फिर जब आपको उपसर्ग होते हैं, तब मुझे भी वे उपसर्ग होते हैं, क्योंकि अग्नि सूके के साथ हरे को भी जला देती है। और लोग भी पहले मुझे मारते हैं फिर आपको मारते है। साथ ही अच्छे भोजन की इच्छा होने पर भी किसी दिन भोजन होता है, तो किसी दिन भूखा ही रहना पड़ता है। फिर पाषाण में और रत्न में, अरण्य में और नगर में, धूप में और छांव में, अग्नि में
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)