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हुए देखा। उनकी ऐसी स्थिति को देखकर सेठ बोले कि 'अरे! ये बैल जो कि मुझे प्राणों से भी प्यारे हैं, उनको मुझसे पूछे बिना ले जाकर किस पापी ने ऐसी दशा कर दी? तब परिजनों ने आकर सेठ को उनके मित्र के विषय में बताया । अपने सहोदर को विपत्ति आवे वैसे ही उनको बहुत दुःख हुआ ।
(गा. 325 से 335)
उन वृषभों की अनशन करने की भावना होने से उन्होंने सेठ प्रदत्त घास या पानी को किंचित्मात्र भी सूंघा नहीं। तब सेठ ने पौष्टिक अन्न से भरपूर एक थाल लाकर उनके सामने रखा। परन्तु उन्होंने उसे दृष्टि से भी संभवित किया नहीं। तब उनका भाव जानकर सेठ ने उनको चारों आहार का त्याग कराया। वह उन्होंने अभिलाषा पूर्वक समाधिपूर्वक ग्रहण किया। उन पर दया लाकर अन्य सर्व काम छोड़कर स्वयँ सेठ उनको नवकार मंत्र सुनाते और भवस्थिति का बोध कराते हुए उनके पास ही बैठे रहे । इस प्रकार नमस्कार महामंत्र सुनते हुए एवं भवस्थिति की भावना भाते हुए वे समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त कर नागकुमार में देवरूप में उत्पन्न हुए।
(गा. 336 से 340 )
उन कंबल और संबल देव ने अवधिज्ञान से देखा तो सुद्रंष्ट नागकुमार का प्रभु पर किया नाव डुलाने का उपद्रव उनको दिखाई दिया। तब 'अपने अभी और कोई काम करने की जरूरत नहीं है, अभी तो चलो, अर्हन्त प्रभु पर होने वाले उपद्रव को एकदम अवरुद्ध कर दें'- ऐसा सोच कर वे प्रभु के समीप आए। उनमें से एक तो सुद्रंष्ट्र नागकुमार के साथ युद्ध करने में प्रवृत्त हुआ एवं अन्य ने अपने हाथ से ही उस नाव को गंगा के तीर पर ला दिया । वह सुद्रंष्ट देव यद्यपि विपुल ऋद्धिवाला था, तथापि आयुष्य का अंत समय नजदीक होने से उसका बल क्षीण हो गया था। इधर इन दोनों देवों के नूतन देवत्व का वैभव था, इसलिए उन दोनों ने उसे जीत लिया था । पश्चात् वह सुद्रंष्ट वहाँ से पलायन कर गया। तब कंबल संबल नागकुमार देवों ने प्रभु को नमन करके हर्षित होकर प्रभु पर पुष्पों एवं सुगन्धित जल की वृष्टि की। ' आपके प्रभाव से इस नदी को आपत्ति की भांति हम पार उतर गये। ऐसे बोलते हुए नाव में बैठे अन्य लोग भक्ति से वीर प्रभु को वंदना करने लगे। दोनों नागकुमार प्रभु को नमन करके
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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