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के बिना इनका पालन करना, वह भी मुश्किल है। अब मैं क्या करूं? मूर्ख के साथ स्नेह होने से मैं संकट में पड़ गया हूँ। ऐसा विचार करके वे दयालु जिनदास सेठ उन दोनों वृषभों का प्रासुक घास और पानी से पोषण करने लगे। अष्टमी या चतुर्दशी के दिन वे सेठ उपवास करके पौषध व्रत लेकर वे बैल सने वैसे धर्म सम्बन्धित पुस्तकों का वाचन करते थे। इस प्रकार हमेशा धर्म श्रवण करने से वे भद्रिक हो गये। बाद में जब जिस दिन सेठ भोजन नहीं करते, उस दिन वे बैल भी घास–पानी ग्रहण नहीं करते। जब उन बैलों ने खाना-पीना-नीरण भी छोड़ दिया तो उनको देखकर सेठ ने सोचा कि 'मैंने अब तक तो मात्र दया के कारण इन बैलों का पोषण किया, परंतु अब तो ये मेरे साधर्मी बंधु हैं। इस बुद्धि से मुझे इनका पोषण करना चाहिये। ऐसा सोचकर सेठ प्रतिदिन उनका विशेष रूप से बहुमान करने लगे, क्योंकि सेठ की बुद्धि में वे पशु रूप से नहीं थे।
(गा. 306 से 324) किसी समय भंडीरवण नामक यक्ष का यात्रोत्सव आया। उस दिन गांव के युवा, बालक वाहनों की वहन क्रीड़ा करने लगे। उस गांव में जिनदास का एक कौतुकी मित्र था, वह श्रेष्ठी को पूछे बिना उस दिन उन दोनों वृषभों को अपने वाहन में जोड़ने ले गया। “जहाँ स्नेह होता है, वहाँ जुदाई न होने से पूछने की आवश्यकता नहीं होती, "जो उसका होता है, वह उसको अपना ही मानता है। "मुर्गे के अंडे जैसे श्वेत, मानो एक साथ ही युगल रूप में जन्में हो वैसे एक समान, गेंद के समान वर्तुल (गोलकार) अंग वाले चँवर जैसे पूंछ वाले, जैसे ऊपर चढ़ते हो वैसे उछलते और वायुपुत्र की भांति वेगवान उन दोनों वृषभों को उस मित्र ने अपनी गाड़ी में जोत लिये। उनकी सुकुमारता से अज्ञात वह निर्दय मित्र लोगों को आश्चर्य चकित करने हेतु उनको चाबुक और परोणी के आरे से मार-मार कर हाँकने लगा। अनुपम वेगवान उन वृषभों के द्वारा उसने वाहन क्रीड़ा करने वाले सर्व नगरजनों को क्षणभर में जीत लिया। आरे से पड़े छिद्रों में निकलते रूधिर द्वारा जिनके सर्व अंग आर्द्र हो गये और जिनकी संधियाँ (जोड़-जोड़) टूट गये ऐसे उन वृषभों को काम पूर्ण हो जाने पर उस मित्र ने पुनः लाकर उनको सेठ के घर में बांध दिये। भोजन के अवसर पर सेठ हाथ में यव का पूला लेकर पुत्र की तरह उन बैलों के पास आए। वहाँ तो उन बैलों का मुंह खुला हुआ, नेत्र से अश्रु गिराते हुए, श्वांस चढ़ा हुआ, असह्य दुःखी, कांपते हुए और आरे से हुए छिद्रों में से खून की धाराएं निकलते
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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