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'इस दुराशय पति अच्छंदक की अंगुलियाँ का छेदन किया और सभी लोगों ने उसका तिरस्कार किया, वह बहुत अच्छा किया। अभी जो यदि लोग मेरे पास आवे तो मैं उसका दुश्चरित्र खुल्ला कर दूं कि जिससे इस पापी को मुझे मारने का फल पूरा ही मिल जाय।' इतने में तो सब गांव के लोग वहाँ जा पहुँचे और उन्होंने उस स्त्री को अच्छंदक के दुश्चरित्र के विषय में पूछा। तब वह बोली कि, इस पापी का नाम भी कौन ले, यह दुष्ट चंडाल अपनी बहन के साथ विषयसुख का भोग करता है, और कभी भी मेरी इच्छा नहीं करता। यह बात सुनकर सभी कलकलाहट करते हुए गाँव के लोग अच्छंदक की निंदा करते करते अपने अपने घर चले गए। बाद में वह भिक्षुक सर्व स्थानों पर ‘पापी-पापी' ऐसा कहा जाता हुआ तिरस्कृत हुआ। उसे किसी भी स्थान पर भिक्षा भी नहीं मिली। “प्रतिष्ठा रहित पुरुष को धिक्कार है।"
(गा. 181 से 214) अच्छंदक एकान्त में वीर प्रभु के पास जाकर दीनता से नमन करके बोला कि “हे भगवान! आप यहाँ से अन्यत्र पधारो क्योंकि जो पूज्य होते हैं, वे तो सर्वत्र ही पूजाते हैं। मैं तो यहाँ पर ही जानी मानी हूँ। अन्यत्र तो मेरा नाम भी कोई नहीं जानता। “शृगाल का शौर्य तो उसकी गुफा में ही होता है। बाहर होता नहीं है। "हे नाथ! अनजान में भी मैने आपका जो अविनय किया हैं, उसका फल मुझे अभी ही प्राप्त हो गया है, इसलिए अब मुझ पर कृपा करो।" उसके ऐसे वचन सुनकर अप्रीतिवाले स्थान का परिहार करने का अभिग्रह धारण करने वाले प्रभु ने वहाँ से उत्तर चावाल नामक के सन्निवेश की ओर प्रस्थान किया।
(गा. 2 15 से 218) दक्षिण और उत्तर में इस प्रकार चावाल नामक दो गांव थे और उनके बीच में सुवर्ण बालुका और रुप्यबालुका नामकी दो नदियों थी। प्रभु दक्षिण की ओर के चावाल गाँव से उत्तर की ओर चावाल गाँव की ओर जा रहे थे, वहाँ सुवर्णबालुका के तट पर उसका अर्धदेवदूष्य वस्त्र कांटे में फंस गया। वहां से थोड़ा चलने पर प्रभु ने विचार किया कि, 'यह वस्त्र अयोग्य स्थंडिल भूमि में गिरा है।' ऐसा विचार करके थोड़ा पीछे देखकर प्रभु आगे चल दिये।
(गा. 219 से 222)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)