________________
बनाया। उससे भी प्रभु क्षुभित नहीं हुए। तब उस दुष्ट ने यमराज के पाश जैसा भयंकर सर्प का रूप धारण किया। अमोघ विष के झरने जैसे उस सर्प ने प्रभु के शरीर को दृढ़ रीति से जकड़ लिया और उग्र दाढ़ों से प्रभु को डसने लगा। परंतु सर्प उसमें भी निष्फल गया। इस निष्फलता से उस दुष्ट यक्ष ने तब प्रभु के सिर, नेत्र, मूत्राशय, नासिका, दांत, पृष्ठ और नख इन सात स्थानों पर असह्य वेदना प्रकट की। इनमें से एक वेदना भी सामान्य मनुष्य को तो मृत्यु का वरण ही करा दे, तथापि प्रभु ने वह सब सहन किया। इस प्रकार अनेकों उपसर्ग कर करके जब वह व्यंतर थक गया, तब वह विस्मित हो अंजलीबद्ध होकर कहने लगाहे दयानिधि! आपकी शक्ति से अज्ञात मुझ दुरात्मा ने आपका अत्यन्त अपराध किया है। वह क्षमा करें। उस समय वह सिद्धार्थ देव कि इतने समय तक जिसका मन कार्य में व्यग्र था, उसे अब प्रभु के पास रहने की इंद्र की आज्ञा याद आई। वह तत्काल ही वहाँ आकर बड़े आक्रोश से बोला कि - देवाधम शूलपाणि! अप्रार्थित मृत्यु की प्रार्थना करने के समान तूने यह क्या किया? हे दुर्मति! ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र तीर्थंकर भगवंत वीरप्रभु हैं, जो कि त्रिजगत्पूज्य हैं। क्या तू इनको नहीं जानता? यदि तेरा यह चरित्र प्रभु के भक्त शक्रेन्द्र जानेंगे तो तू उनके वज्र की धारा का भोग हो जाएगा। सिद्धार्थ देव के इन वचनों को सुनकर शूलपाणि भय और पश्चात्ताप से आकुल व्याकुल हो गया। इससे उसने प्रभु को पुनः खमाया। क्योंकि उस समय अन्य कोई भी उपाय था नहीं। उसे प्रशांत हुआ देखकर दयालु सिद्धार्थ देव ने कहा कि “अरे! तू अभी तत्त्व को जानता नहीं है, इसलिए जो यथार्थ तत्त्व है, वह सुन-वीतराग में देवबुद्धि, साधुओं में गुरुबुद्धि एवं जिनेश्वर भगवंत कथित धर्म में धर्मबुद्धि इसे आत्मसात कर। अब से अपनी आत्मा की भाँति किसी भी प्राणी को पीड़ा करना नहीं। पूर्वकृत सभी दुष्कृत्यों की निंदा कर। प्राणी एकबार भी आचरित तीव्र कर्म का फल कोटाकोटि गुण प्राप्त करता है।" इस प्रकार तत्त्व सुनकर शूलपाणि यक्ष पूर्वकृत अनेक प्राणियों के घात का स्मरण करके बार बार अपनी आत्मा की निंदा करने लगा एवं अत्यंत पश्चात्ताप करके लगा। पश्चात् समकित धारण करके संसार से उद्विग्न उस यक्ष ने प्रभु के चरणों की पूजा की तथा अपने अपराध रूप मल को धोने में जल के सदृश संगीत प्रभु के समक्ष करने लगा। उस संगीत के शब्दों को श्रवण कर गांव के लोग सोचने लगे कि 'उन मुनि को मारकर अब वह यक्ष क्रीड़ा कर रहा होगा।'
(गा. 125 से 146)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
41