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दिखने लगे। उस क्रीड़ा में भगवान की जीत हुई। इस क्रीड़ा में इस प्रकार था कि "जो हार जाय वो अन्यों को अपने पृष्ठ पर बिठाकर वहन करे।' तब राजपुत्र वीर प्रभु को अपनी पीठ पर बिठाकर वहन करने लगे। अनुक्रम से महा पराक्रमियों में श्रेष्ठ ऐसे प्रभु उस देव के पीठ पर भी आरुढ़ हुए। तत्काल ही वह दुष्ट बुद्धिवाला देव विकराल वेताल रूप करके पर्वतों को नीचे कर दे, उस प्रकार बढ़ने लगा। उसके पाताल जैसे मुख में रही जिह्वा तक्षक नाग जैसी दिखने लगी। उसकी भयंकर दाढ़े करवत जैसी हो गई, उसके लोचन अंगारे की सिगड़ी के जैसे जाज्वल्यमान दिखने लगे। उसके नाक के नथुने पर्वत की गुफा की तरह अति घोर दिखने लगे एवं भृकुटि भंगुर सी भौंहे मानो दो बड़ी सर्पिणी हो, ऐसी लगने लगी। इस प्रकार बढ़ता हुआ उसने विराम नहीं लिया। इतने में तो उसका स्वरूप जानकर महापराक्रमी प्रभु ने उसके पृष्ट भाग पर एक मुष्टि प्रहार करके उसे वामन कर दिया। तब वह देव इंद्र द्वारा वर्णित भगवत के धैर्य को प्रत्यक्ष देखकर स्वस्वरूप प्रकट करके प्रभु को नमन करके स्वस्थान पर चला गया।
(गा. 103 से 118) प्रभु जब आठ वर्ष से अधिक हुए तब पिता ने शिक्षा ग्रहण करने के लिए शाला में भेजने का निश्चय किया। उस समय इंद्र का सिंहासन कंपायमान हुआ। तब इंद्र ने अवधिज्ञान से प्रभु के माता-पिता की अद्भुत सरलता जानी और प्रभु को भी शिष्यत्व ग्रहण करना पड़ता है ? यह विचार करके शीघ्र ही वहाँ आये। प्रभु को पाठशाला ले जा रहे थे, वहाँ इंद्र ने प्रभु को उपाध्याय के आसन पर विराजमान किया। पश्चात् प्रणाम करके प्रार्थना की, तब प्रभु ने शब्द पारायण (व्याकरण) कह सुनाया। यह शब्दानुशासन भगवंत ने इंद्र को कहा। यह सुनकर उपाध्याय ने लोक में 'ऐन्द्र व्याकरण' के नाम से उसे प्रख्यात
किया।
(ना.
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(गा. 119 से 122) सात हाथ ऊंची काया वाले प्रभु ने अनुक्रम से यौवन प्राप्त किया। तब वन के हाथी की भांति लीला से गमन करने लगे। त्रैलोक्य में उत्कृष्ट ऐसा रूप, तीन जगत् का प्रभुत्व और नवीन यौवन प्राप्त होने पर भी प्रभु को किंचित् मात्र भी विकार पैदा नहीं हुआ। राजा समरवीर ने यशोदा नामकी अपनी कन्या को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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