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पुकारने लगी। आश्विन मास की कृष्ण त्रयोदशी को चंद्र के हस्तोत्तरा नक्षत्र में आने पर देव ने प्रभु को त्रिशलादेवी के गर्भ में स्थापित किया। उस समय त्रिशला महारानी ने हाथी, वृषभ, सिंह अभिषेक करती लक्ष्मी, माला, चंद्र, सूर्य, महाध्वज, पूर्णकुंभ पद्म सरोवर, समुद्र, विमान, रत्नराशि और निर्धम अग्नि इन चौदह महास्वप्नों को मुख में प्रवेश करते हुए देखा। तब इंद्र ने सिद्धार्थ राजा को एवं स्वप्नफल पाठक नैमित्तिकों को उन स्वप्नों का फल तीर्थंकर का जन्मरूप सूचित किया। यह सुनकर देवी अत्यन्त हर्षित हुई। हर्ष प्राप्त कर देवी ने अद्भुत गर्भ धारण किया। तब वह क्रीड़ा-गृह की भूमियों में भी प्रमाद रहित होकर विहार करने लगी।
(गा. 25 से 33) प्रभु के गर्भ में अवतरण होते ही शक्र इंद्र की आज्ञा से जंभक देवताओं ने सिद्धार्थ राजा के गृह में बारबार धन का समूह ला-लाकर स्थापित किया। गर्भ में अवतरित प्रभु के प्रभाव से उनका सम्पूर्ण कुल धन, धान्य की समृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ। जो राजा पहले गर्व से सिद्धार्थ राजा को नमते नहीं थे, वे हाथ में भेंट लेकर स्वयमेव वहाँ आकर के नमने लगे।
(गा. 34 से 36) एक बार मेरे फिरने, हलन चलन से मेरी माता को वेदना न हो' यह सोचकर प्रभु गर्भावास में भी योगी की तरह निश्चल रहे। उस समय प्रभु माता के उदर में सर्व अंग व्यापार को संकोच कर इस प्रकार रहे कि जिससे माता उदर में गर्भ है या नहीं यह समझ नहीं सकीं। इससे त्रिशला को चिंता हुई कि 'क्या मेरा गर्भ गल गया है ? या किसी ने हरण कर लिया? या उसका नाश हो गया? या थंभित हुआ है ? यदि इसमें से कुछ भी हुआ हो तो मुझे अब जीने का क्या काम? क्यों कि मृत्यु का दुःख सहा जा सकता है, परंतु ऐसे गर्भ के वियोग का दुःख सहन करना शक्य नहीं हैं। इस प्रकार आर्तध्यान करते हुए देवी केश खुले रखकर, अंगराग छोड़ कर और करों परमुख कमल को रखकर रुदन करने लगी। साथ ही सर्व आभूषणों का त्याग कर दिया, निःश्वास से अधर को विधुर कर दिया, सखियों से भी मौन धारण कर लिया और सोना, खाना सब कुछ छोड़ दिया। ये समाचार सुनकर सिद्धर्य राजा को भी खेद हुआ। उनके ज्येष्ट पुत्र नंदीवर्धन और पुत्री सुदर्शना भी दुःखी हो गए।
__ (गा. 37 से 43)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)