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फिर अपने अपने स्थान पर जाकर अपने अपने विमान में मणिमय (माणवक) स्तंभ के ऊपर स्थित वज्रमय गोल डिब्बे में प्रभु दाढ़ों एवं अस्थि की स्थापना की।
(गा. 270 से 272) __गृहस्थपने में तीस वर्ष और व्रत में बियालीस वर्ष इस प्रकार बहत्तर वर्ष की आयु श्री वीरप्रभु ने पूर्ण की। श्री पार्थप्रभु के निर्वाण के पश्चात् ढाई सौ वर्ष व्यतीत होने पर श्री वीरप्रभु का निर्वाण हुआ।
(गा. 273) इधर श्री गौतम गणधर देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध करके वापिस लौटने लगे, तब मार्ग में देवताओं के वार्तालाप से प्रभु के निर्वाण के विषय में सुना। इस पर वे चित्त में चिंतन करने लगे कि “एक दिन में ही निर्वाण होने पर भी प्रभो! मुझे किस लिए दूर भेजा? अरे जगत्पति! मैंने इतने समय तक आपकी सेवा की। परंतु अंतसमय में मुझे आपके दर्शन हुए नहीं, अतः मैं अधन्य हूँ। जो उस समय आपकी सेवा में हाजिर थे, वे धन्य हैं। अरे गौतम! तू वास्तव में वज्रमय है, या वज्र से भी अधिक कठिन है कि जिससे प्रभु का निर्वाण सुनकर भी तेरे हृदय के सैंकड़ों टुकडे नहीं हो जाते। अथवा हे प्रभो! मैं अभी से भ्रांत हो गया हूँ कि जिससे इन निरागी और निर्मम ऐसे प्रभु में मैंने राग और ममता रखी। यह राग और द्वेष आदि संसार के हेतु हैं। इसका त्याग कराने के लिए ही इन परमेष्ठी ने मेरा त्याग किया होगा। इसलिए ऐसे ममत्व रहित प्रभु में ममता रखने से क्या मतलब? क्योंकि मुनियों को तो ममताल पर भी ममता रखना युक्त नहीं है। इस प्रकार शुभ ध्यान परायण होने पर गौतम मुनि क्षपक श्रेणी पर आरुढ हुए। तब शीघ्र ही घातिकर्मों का क्षय होने पर उनको केवलज्ञान केवल दर्शन हो गया। पश्चात् बारह वर्ष तब पृथ्वी पर विहार किया और भव्यप्रणियों को प्रतिबोध देकर केवलज्ञानरूप अचल समृद्धि से प्रभु के तुल्य देवताओं से पूजित गौतम मुनि प्रांते राजगृही नगरी में पधारे। वहाँ एक मास का अनशन करके भवोपग्रही कर्मों को खपाकर, अक्षय सुख वाले मोक्षपद को प्राप्त किया।गौतम स्वामी के मोक्ष में जाने के पश्चात् पांचवे गणधर सुधर्मास्वामी ने पंचमज्ञान उपार्जन करके बहुत काल पर्यन्त पृथ्वी पर विचरण करके धर्म देशना दी। अंत में वे राजगृही नगरी में पधारे एवं अपने निर्दोष संघ को
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)