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विलेपन (किया। पश्चात् दिव्य वस्त्र ओढ़ाकर मानो नयनाश्रु से पुनः स्नान करा रहे हों वैसे अश्रुपूरित नेत्रों से शक्रेन्द्र ने प्रभु के शरीर को उठाया और सुरासुरों ने साश्रुनयनों से देखते हुए उसे एक श्रेष्ठ विमान जैसी शिबिका में पधराया। महाप्रयास से शोक को अवरुद्ध करके प्रभु के शासन को धारण करे वैसे बंदीजनों के समान जय जय ध्वनि करते हुए उसके ऊपर दिव्य पुष्पों की वृष्टि करने लगे। साथ ही अपने नेत्रकमल के जल के समान सुगंधित जल की वृष्टि से चारों ओर भूमितल पर सिंचन करने लगे। गंधर्व देव प्रभु के गुणों को बारम्बार स्मरण करके गंधों की भांति तारस्वर से गाने लगे। सैंकड़ों देवता मृदंग और पणव आदि वाद्यों को शोक से अपने उरस्थल के समान ताड़न करने लगे। प्रभु की शिबिका के आगे शोक से स्खलित होती हुई देवांगनाएँ अभिनव नर्तकियों के जैसे नृत्य करती हुई चलने लगी। चतुर्विध देवता दिव्य रेशमी वस्त्रों से, हारादि आभूषणों से एवं पुष्प मालाओं से प्रभु की शिबिका का पूजन करने लगे एवं श्रावक तथा श्राविकाएं के हृदय में शोक से आकुल व्याकुल होकर रासड़ा के गीत और रुदन करने लगी। उस समय साधु और साध्वियों के हृदय में शोक ने बड़ा स्थान ले लिया। “सूर्यास्त होने पर गाढ़ निद्रा प्राप्त ही होती है।" तत्पश्चात् शोकरूपी शंकु से विदार्ण हृदय वाले इंद्र ने प्रभु के शरीर को चिता पर रखा। अग्निकुमार देवों ने उसमें अग्नि प्रज्वलित की एवं उसमें ज्योति प्रदीप्त करने के लिए वायुकुमारों ने वायु की विकुर्वणा की। अन्य देवताओं ने सुगन्धित पदार्थ एवं धृत तथा मधु के सैंकड़ों घड़े अग्नि में प्रक्षिप्त किया। जब प्रभु के शरीर में से मांसादिक दग्ध हो गए तब मेघकुमार देवों ने क्षीर सागर के जल द्वारा चिता को ठंडी कर दी। तब शक्र और ईशान इंद्र ने प्रभु के ऊपर की दक्षिण और वाम दाढ़ों को लिया और चमरेन्द्र ने तथा बलिन्द्र ने नीचे की दो दाढ़े ग्रहण की। अन्य इंद्रों एवं देवों ने अन्य दांत और अस्थि ग्रहण की। उसके पश्चात् देवों ने चिता के स्थान पर कल्याण और संपत्ति के स्थानरूप एक रत्नमय स्तूप रचा।
(गा. 249 से 269) इस प्रकार श्री वीरप्रभु की निर्वाण की महिमा करके सर्व इन्द्र तथा देवगण नंदीश्वर द्वीप गये वहाँ शाश्वत प्रतिमाओं का अष्टान्हिक महोत्सव किया।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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