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भविष्य की हकीकत कथन करके श्री वीरप्रभु समवसरण में से बाहर निकले और हस्तिपाल राजा की शुल्क शाला में पधारे।
(गा. 208 से 217) __ उस दिन की रात्रि में ही अपना मोक्ष जानकर प्रभु ने विचार किया कि, 'अहो! गौतम का स्नेह मुझ पर अत्याधिक है और वही उसके केवलज्ञान की उत्पत्ति में अंतराय करता है, इसलिए उस स्नेह का ही छेद कर देना चाहिये। ऐसा विचार करके उन्होंने गौतम से कहा गौतम यहाँ से नजदीक के दूसरे गाँव में देवशर्मा नाम का ब्राह्मण है, वह तुमसे प्रतिबुद्ध होगा, अतः तुम वहाँ जाओं।' यह सुनकर ‘जैसी आपकी आज्ञा' ऐसा कहकर गौतम वीरप्रभु को नमन करके शीघ्र ही वहाँ गए और प्रभु के वचन को सत्य किया अर्थात् उसे प्रतिबोध दिया।
(गा. 218 से 221) इधर कार्तिक मास की अमावस को पिछली रात्रि में चंद्र के स्वाति नक्षत्र में आने पर छठ तप के धारी वीरप्रभु ने पचपन अध्ययन पुण्य फल विपाक संबंधी और पचपन अध्ययन पाप फल विपाक संबंधी कथन किया। पश्चात् छत्तीस अध्ययन अप्रश्रव्याकरण और किसी के पूछे बिना कहकर, अंतिम प्रधान नाम का अध्ययन फरमाने लगे। उस समय आसन कंपन से प्रभु का मोक्ष समय ज्ञात होने पर सर्व सुर और असुर के इंद्र परिवार सहित वहाँ आए। पश्चात् अश्रुपूरित नेत्रों से शक्रेन्द्र ने प्रभु को नमन करके अंजलीबद्ध होकर संभ्रमित होकर कहा – “नाथ! आपके गर्भ, जन्म दीक्षा और केवलज्ञान के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र था, इस समय उसमें भस्मकग्रह भी संक्रात होने वाला है। आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमित वह ग्रह दो हजार वर्ष तक आपकी संतान (साधु साध्वी) को बाधा उत्पन्न करेगा। वह भस्मकग्रह आपके जन्मनक्षत्र में संक्रमें तब तक आप राह देखे क्योंकि यदि दृष्टि पचमें संक्रमित होने पर आपके प्रभाव से निष्फल हो जाएगा। यदि अन्य भी आपको हृदय में धारण करते हैं तो उनके कुस्वप्न, अपशकुन, एवं कुग्रह भी श्रेष्ठरूप हो जाते हैं। अतः हे स्वामिन्! जहाँ
आप साक्षात् ही रहे हों, वहाँ तो बात ही क्या करनी? अतः प्रभु आप प्रसन्न होकर ठहरें तो उस उपग्रह का उपशम हो जाय।" प्रभु ने कहा- “हे शक्रेन्द्र! आयुष्य बढ़ाने में कोई भी समर्थ नहीं है। वह तुम भी जानते हो, फिर भी तीर्थ
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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