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तुझे शर्म क्यों नहीं आती? इन सबको तू छोड़ दे अन्यथा तू बड़े अनर्थ को प्राप्त होगा। इंद्र के ऐसे वचन से कल्की कोपायमान होकर कहेगा कि, 'अरे सुभटों ! इस ब्राह्मण को गले से पकड़ कर निकाल दो।' ऐसा उसके बोलते ही इंद्र पाप के पर्वत स्वरूप उस कल्की को चांटा मारकर भस्म कर देगा । तब छियासी वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके कल्की दुरंत ऐसी नारकभूमि में नारकी रूप में उत्पन्न होगा। तब शक्रेन्द्र कल्की के दत्त नाम के कुमार को जैन धर्म की शिक्षा देकर राज्य सिंहासन पर बैठाकर, संघ को नमन करके अपने स्थान पर चला जाएगा। दत्त राजा पिता को प्राप्त पाप का घोर फल और इंद्र प्रदत्त शिक्षा का बारम्बार स्मरण करके पृथ्वी को अरिहंत प्रभु के चैत्यों से विभूषित कर देगा । पश्चात् पांचवे आरे के अंत तक जैन धर्म की प्रवृत्ति निरंतर रहेगी।
(गा. 94 से 122 )
तीर्थंकर के समय में यहाँ भरत क्षेत्र में ग्राम, खान और नगरों से आकुल और धन धान्य आदि समृद्धि से भरपूर स्वर्गपुरी जैसे, कुटुम्बीजन राजा तुल्य राजा कुबेर भंडारी समान, आचार्य चंद्र समान, पिता देव तुल्य सास माता समान एवं श्वसुर पिता जैसे होते हैं। लोग सत्य तथा शौच में तत्पर, धर्माधर्म के ज्ञाता, विनीत, गुरुदेव के पूजक और अपनी स्त्री में संतुष्ट होते हैं । फिर लोग विज्ञान, विद्या और कुलवान् होते है । परचक्र, इति और चोर लोगोंका भय नहीं होता। साथ ही नया कोई कर लगता नहीं । ऐसे समय में भी अर्हन्त की भक्ति के ज्ञाता न होने से साथ ही विपरीत वृत्तिवाले कुतीर्थियों से मुनि आदिक को उपसर्ग आदि होते हैं और दस आश्चर्य भी हुए हैं।
(गा. 123 से 129)
उसके पश्चात् दुःषमा काल में अर्थात् पंचम आरे में सर्व जन कषायों से लुप्त हुई धर्मबुद्धिवाले और बाड़ बिना का खेत की भूमि जैसे मर्यादा रहित होंगे। जैसे जैसे आगे काल व्यतीत होगा वैसे वैसे लोग कुतीर्थियों द्वारा मोहित बुद्धिवाले एवं अहिंसादिक से वर्जित होंगे। वैसे ही गांव श्मशान तुल्य, शहर प्रेतलोक समान, कुटुम्बी दास जैसे एवं राजा यमदंड सदृश होंगे । राजागण लुब्ध होकर अपने सेवकों का निग्रह करेंगे। सेवकगण अपने स्वजनों को लूटेंगे। इस प्रकार मत्स्य न्याय (जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खाय वैसे ) प्रवर्तेगा। जो अन्त्य होगा वह मध्य में आ जायेगे । श्वेत चिह्न वाले वाहनों से सर्व देश
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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