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विद्या के प्रभाव से उठाकर पुष्पमाला की भांति संभालता हुआ नीलवान पर्वत पर ले गया। पश्चात् चेटक राजा मृत्यु की लक्ष्मी हो वैसी लोहे की पुतली को गले में बांधकर अनशन करके ऊंडे जल में गिर पड़े । उनको डूबते हुए देखकर धरणेन्द्र ने उनको साधर्मी जानकर अपने भुवन में ले गया । “आयुष्य पूर्ण हुए बिना मृत्यु नहीं होती।” धरणेन्द्र द्वारा प्रशंसित एवं धर्मध्यान में तत्पर ऐसे महा मनस्वी चेटकराजा पूर्व रणस्थित थे, वैसे मृत्यु से निर्भय होकर वहाँ रहे । उन चतुर ने अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म कि जो चारों मंगलरूप और लोक में उत्तम हैं, उनका स्मरण किया । वह इस प्रकार कि - " जीव, अजीव, आदि तत्त्वों के उपदेशक, परमेश्वर, बोधिदायक एवं स्वयंसंबुद्ध ऐसे अर्हन्त परमात्मा का मुझे शरण हो, ध्यान रूप अग्नि से कर्मों को दग्ध करने वाले, तेजरूप अनश्वर और अनंत केवल ज्ञान वाले सिद्ध भगवन्त को मेरा शरण हो । निरीह, निरहंकार, निर्मम, समान चित्त वाले, महाव्रतों के धारक एवं धीर साधुओं का मुझे शरण हो । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह इन पाँच यमवाले केवली प्ररूपित धर्म का यदि मन वचन काया से अपराध किया हो तो उनकी मैं मन वचन काया से निंदा करता हूँ । द्वादश प्रकार के यती धर्म का पालन करते मुझे जो कोई अतिचार लगा हो उन सबको मैं वोसिराता हूँ ।
(गा. 388 से 400 ) क्रोध, मान, माया और लोभ से पराभूत होकर मैंने जो कोई अहिंसादि पापकर्म किया हो, उसे धिक्कार हो, अर्थात् उसे मैं मिच्छामि दुक्कड़म् देता हूँ।" इस प्रकार आरधना करके नमस्कार मंत्र के स्मरण में पारायण चेटकराजा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग सुख का भाजन हुआ। इधर अशोकचंद्र (कुणिक) ने गधे के साथ हल जुताकर क्षेत्र (खेत) की तरह उसन नगरी को जोतकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने लगा । इस प्रकार दुस्तर नदी जैसी उस प्रतिज्ञा को तैर करके चंपापति बड़े उत्सव के साथ नगरी में आया।
(गा. 401 से 404)
अन्यदा विहार से पृथ्वी को पवित्र करते हुए जगद्गुरु श्री वीरप्रभु चंपानगरी में आकर समवसरे। उस समय कितनीक श्रेणिक राजा की स्त्रियों ने कि अपने पुत्रों के मरण आदि कारणों से विरक्त होकर दीक्षा अंगीकार कर ली। तीन लोक के संशय को छोदने वाले श्री वीरप्रभु को वंदन करने के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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