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के रुद्धता से बहुत ही दुःखी हो गये हैं। तो अब इससे हमारा छुटकारा कब होगा? यदि आप जानते हो तो बताएँ।' मुनि ने कहा कि, “हे लोगों! मैं यह तो अच्छी तरह से जानता हूँ। सुनो! जब तक इस नगरी में वह स्तूप है, तब तक इस नगरी की रुद्धता मिटेगी नहीं। और जब यह स्तूप ध्वंस हो जाएगा तब समुद्र की बेला के तुल्य शत्रु का सैन्य अकस्मात् ही पीछे हटने लग जाएगा। मैं सोचता हूँ कि इस स्तूप के उखेड़ने से आप सबकी कुशलता हो जाए। क्योंकि इस स्तूप की प्रतिष्ठा अत्यन्त अशुभ योग में हुई है। यही तुम सबको मुसीबत में डाल रही है। इस प्रकार उस धूर्त मुनि की बुद्धि से छले हुए लोग उस स्तूप को ध्वस्त करने लगे। “सर्व जन दुःख से पीड़ित होने पर प्रायः अकृत्य हो तो करते रहते हैं। जब लोगों ने स्तूप को तोड़ना चालू किया, तब मागधाधिपति मुनि ने कोणिक के पास जाकर उस सेना को दो कोश पीछे हठवा दी। इससे लोगों में कुलवालुक की कही बात पर विश्वास हो जाने पर कोपायमान हुए लोग कठोरता से उस स्तूप को कूर्म शिला तक का उन्मूलन कर बैठे। पश्चात् कुणिक ने बारह वर्ष के अंत में वैशालीपुरी को भग्न कर डाला। क्योंकि उस स्तूप के प्रभाव से ही उस नगरी को भग्न कोई कर नहीं सकता था। वैशाली
का भंग होने से चंपा और वैशाली के अधिपति बीच हुए युद्ध का भी विराम हुआ। इस अवसर्पिणी में ऐसा महायुद्ध कभी भी हुआ नहीं।
(गा. 366 से 384) इसके पश्चात् चंपापति ने वैशालीपति को संदेश भेजा कि- आर्य चेटक! आप पूज्य हैं, इसलिए कहिए कि मैं अपका क्या प्रिय करूँ? चेटक ने खेद करते हुए उसके उत्तर में कहलाया कि- हे राजन्! तू विजय के उत्सव के लिए उत्सुक है, तथापि कुछ विलम्ब से नगरी में प्रवेश करना। दूत ने आकर
चेटक का वचन कह दिया। तब 'बुद्धि क्षीण हुए इस चेटक राजा ने यह क्या मांगा? यह कहकर कुणिक ने उस वचन को स्वीकार किया।
(गा. 385 से 387) 'सत्यकि' नामक एक खेचर जो कि सुज्येष्ठा का पुत्र और चेटक राजा का भागिनेय (भाणजा) था। वह उस समय वहाँ आया। उसने मन में सोचा कि 'मेरे मातामह की पूजा को शत्रुगण लूट रहे हैं, यह मुझ से कैसे देखा जाय? इसलिए मैं इनको अन्यत्र ले जाऊं।' ऐसा विचार करके उसने सम्पूर्ण नगरी के लोगों को
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)