________________
ले आए। इसलिए अब अपना जीना उपयुक्त नहीं है । इस पर भी यदि जीना ही हो तो अभी से श्री वीरप्रभु के शिष्य बनकर जीना, अन्यथा नहीं ।"
(गा. 301 से 309)
इसी समय शासन देवी ने उनको दोनों भावयति ज्ञात होने पर वीर प्रभु की शरण में ले गई। शीघ्र ही उन्होंने वीरप्रभु की शरण स्वीकार करके दीक्षा अंगीकार कर ली। हल्ल विहल्ल ने इस प्रकार दीक्षा ले ली, तो भी कुणिक विशाला नगरी ले सका नहीं। इसलिए उस चंपापति प्रतिज्ञा की । " पराक्रमी पुरषों को प्रतिज्ञा पुरुषार्थ में वृद्धि कराती है ।" उसने प्रतिज्ञा ली कि “यदि मैं इस नगरी को गधे जुते हल से नहीं खोदूं तो मुझे भृगुपात या अग्निप्रवेश करके प्राणत्यण कर देना ।" ऐसी प्रतिज्ञा करने पर भी वह विशाला को अधिकृत नहीं कर सका। इससे वह अत्यन्त खेदित हुआ ।
(गा. 310 से 313)
इतने में क्रमयोग से कुलवालुक मुनि पर रुष्टमान हुई देवी ने आकाश में स्थित होकर कहा कि, "हे कुणिक ! यदि मागधिका वेश्या कुलबाकुल मुनि को मोहित करके वश में करे तो ही तू विशाला नगरी को ग्रहण कर सकेगा ।" ऐसी आकाशवाणी श्रवण करके उसे जय की प्रत्याशा उत्पन्न हुई, शीघ्र ही सज्ज होकर बोला- “बालकों की भाषा, स्त्रियों की भाषा और उत्पातिकी भाषा प्रायः अन्यथा नहीं होती। ये कुलवालुक मुनि कहाँ है ? ये किस प्रकार मिलेगे ? और मागधिका वेश्या भी कहाँ होगी ?” यह सुनकर मंत्री बोले कि, “हे राजन् ! मागधिका वेश्या तो आपकी ही नगरी में हैं । परंतु कुलवालुक मुनि तो हम नहीं जानते ।" तब कुणिक ने विशाला के निरोध के लिए अर्धसैन्य वहाँ छोड़कर शेष अर्ध सैन्य लेकर स्वयं चंपानगरी में आया । और शीघ्र ही चरमंत्री के समान उसने मागधिका वेश्या को बुलाया । वह भी तुरन्त हाजिर हुई । तब कुणिक ने उसे कहा कि "हे भद्रे ! तू बुद्धिमती और कलावती है, तू जन्म से लेकर अनेक पुरुषों को वश करके उपजीवित हुई हैं। तो अब अभी ही मेरा एक कार्य सफल कर। अर्थात् तेरी सर्व कला का प्रदर्शन करके कुलबालुक नाम के मुनि को तेरे परिरूप में बनाकर ला ।' उस मनस्वी वेश्या ने 'मैं' वह कार्य करूंगी' ऐसा स्वीकार किया। तब चंपापति ने वस्त्रालंकारादि द्वारा उसका सत्कार किया और उसे विदा किया। पश्चात् वह धीमती रमणी घर पहुँच कर विचार करके
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
302