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हे महाभुज! मैं श्रावक हूँ इसलिए मैंने व्रत लिया है कि किसी पर भी प्रथम प्रहार नहीं करना। यह सुनकर 'हो महासत्त्व! धन्यवाद है ऐसा कहकर कुणिक के सेनापति ने उस पर बाण छोड़ा कि जिससे वरुण का मर्मस्थान बिंध गया। तब वरूण ने लाल नेत्र करके एक ही प्रहार से कूणिक के सेनापति को यमद्वार में पहुंचा दिया। और वह तत्काल गाढ़ प्रहार से विकल होकर रणभूमि में से बाहर निकल गया। बाहर निकल कर एक स्थान पर तृण का संथारा कर के उस पर आसीन होकर चिंतन करने लगा कि- 'इस शरीर के द्वारा सर्व प्रकार से मैंने स्वामी का कार्य किया है, अब अंतकाल आया होने से साधने का अवसर है, इसलिए अब महापूज्य ऐसे अरिहंत सर्व सिद्ध साधुगण और केवली प्ररूपित धर्म का मुझे शरण हो, मैं सर्व जीवों को खमाता हूँ, वे सब मेरे अपराधों की क्षमा करें। अब सर्व जीवों से मेरी मैत्री है, मेरे किसी के साथ वैर भाव नहीं है। तीन जगत में मेरा कोई नहीं है और मैं किसी का नहीं हूँ। जगत के जितने भी पदार्थों पर ममत्व था, उन सबको मैं छोड़ देता हूँ। मैंने मूढ़ता वश किस किन पापों का सेवन नहीं किया? अब इस समय निरोगी हुए मेरे सर्व दुष्कृत मिथ्या हो। देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी पने में मैंने जो जो दुष्कृत्य किया हो, उन सबकी मैं निंदा करता हूँ। श्री वीर प्रभु एक ही मेरी गति हो।" इस प्रकार आराधना करके उसने चतुर्विध आहार का पच्चक्खाण किया और उसके पश्चात् समाहित मन से नवकार मंत्र का ध्यान करने लगा।
(गा. 240 से 272) इसी समय वरुण का एक मित्र जो कि मिथ्यात्वी था, वह रण में से यकायक बाहर निकल कर वरुण के पास आया और इस प्रकार बोला कि - "हे मित्र! मैं तुम्हारे स्नेह से क्रीत हुआ हूँ। इससे अज्ञ होने पर भी तुम्हारे अंगीकृत मार्ग को स्वीकार करता हूँ। ऐसा कहकर वह भी उसके समान ध्यान परायण हो गया। वरूण नवकार मंत्र का जाप करता हुआ धर्मध्यान में परायण होकर समधिमरण से सौधर्म देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ अरूणाभ नामक विमान में चार पल्लयोपम का आयुष्य पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि पद को प्राप्त करेगा। उसका मिथ्यात्व मित्र भी वरुण के मार्ग का अनुसरण करके मृत्यु के पश्चात् उसका ही मित्र देवता होकर उत्तम कुल में मनुष्य होकर मुक्ति मार्ग की आराधना करके मोक्षपद को प्राप्त करेगा।
(गा. 273 से 278)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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