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पुत्र को राज्य देऊँ, तो मैंने उसे इस संसार रूपी नाटक का एक नाट्य किया, ऐसा कहा जाएगा। नीतिवेत्ताओं ने भी राज्य को नरकांत कहा है। अर्थात् राज्य के अंत में नरक कहा है। इसलिए मैं पुत्र को राज्य नहीं दंगा, क्योंकि राज्य देने पर उसका हितकारी नहीं होऊंगा। ऐसा विचार करके सूर्य जैसे अग्नि को तेज अर्पण करता है वैसे ही उदायन ने अपने केशी नामक भागिनेय (भाणजे) को राज्य श्री अर्पण किया एवं जीवित स्वामी की पूजा के लिए अनेकशः गांव खाने
और नगर आदि दिये। तत्पश्चात् केशी राजा ने जिनका महाभिनिष्क्रमण किया ऐसे उदायन राजा ने हमारे पास दीक्षा ग्रहण की। व्रत के दिन से लेकर छट्ठ, अट्ठम, दशम और द्वादश आदि तप करके उन्होंने अपने कर्मों की भांति अपने देह को भी शोषित कर दिया है।"
(गा. 612 से 625) इस प्रकार वृत्तांत कहकर अंत में वीर प्रभु ने फरमाया कि- हे अभयकुमार! तृण की भांति राज्य- लक्ष्मी को छोड़कर शुद्ध साधुत्व के ग्राहक उदायन राजा अंतिम राजर्षि हैं।
(गा. 625) दशम पर्व का एकादश सर्ग समाप्त
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)