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___ एक वक्त विदिशा में जाकर प्रद्योत राजा ने भ्राजिलस्वामी के नाम से वहाँ देवकीय नगर बसाया "धरणेन्द्र के वचन अन्यथा नहीं होते है।" पश्चात् उसने विद्यन्माली वाली देवाधिदेव की प्रतिमा को शासन में बारह हजार गाँव प्रदान किये।
(गा. 605 से 606) किसी समय वीतभय नगर में स्थित उदयन राजा के पास आकर प्रभावती देव ने स्नेहपूर्वक कहा कि- "हे राजन! यहाँ जो प्रद्योत राजा ने जीवित स्वामी की प्रतिमा प्रेषित की है, वह भी सामान्य नहीं है। वह महाप्रभाविक उत्तम तीर्थस्वरूप है। वह प्रतिमा ब्रह्मर्षि महात्मा श्वेताम्बरी कपिल केवली द्वारा प्रतिष्ठित है। अतः इस प्रतिमा की उस प्रतिमा की भांति ही आपको पूजा करनी है एवं योग्य समय पर महाफलप्रदाता सर्वविरति को ग्रहण करना है।" उदायन ने उसकी वाणी को स्वीकार किया एवं उसके मन रूपी अंकुर में मेघ के समान वह देव अंतर्धान हो गया।
__ (गा. 607 से 611) किसी समय उदायन ने धर्मकार्य में उद्यक्त होकर पौषधशाला में जाकर पाक्षिक पर्वणि में पौषध व्रत ग्रहण किया। रात्रि जागरण में शुभध्यान घ्याते हुए उन राजा को विवेक के सहोदर समान इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि “वह गांव और वह नगर धन्य है कि जो श्री वीरप्रभु के चरणरज के पवित्र है। उन राजादिको को भी धन्य है, जिन्होंने प्रभु के मुखारविंद से धर्मश्रवण किया है, और जिन्होंने उन वीरप्रभु के चरणकमलों के सानिध्य में प्रतिबुद्ध होकर बारह प्रकार के गृहीधर्म को अंगीकरर करके कृतार्थ किया है। जिन्होंने प्रभु के प्रसाद से सर्वविरति ग्रहण की है वे श्लाघ्य और वंदनीय है। उन सबको मेरा नित्य ही नमस्कार हो। अब यदि जो स्वामी इस वीतभयनगर को अपनी विहारयात्रा द्वारा पवित्र करे तो मैं उनके चरणों में दीक्षा अंगीकार करके कृतार्थ हो जाऊँ। (प्रभु कहते हैं) हे अभयकुमार! तथा प्रकार के उनके अध्यवसाय ज्ञात होने पर, उस पर अनुग्रह करने की इच्छा से हम चंपापुरी से विहार करके उसके नगर में समवसरे। वह राजा हमारे पास आकर हमको वंदना करके, देशना श्रवण करके अपने घर गया। पश्चात् अपने विवेक गुण की योग्यता के अनुसार उसने विचार किया- 'मैं व्रत लेने का इच्छुक होकर यदि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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