________________
राजा बोला- “हे महादेवी! तुमको रुचे वैसा करो।' परन्तु हे देवी! तुम देवगति को प्राप्त करो, तो अवश्य ही मुझे प्रतिबोध करने के लिए आना। मेरे लिए क्षणभर के लिए स्वर्ग के सुखों की अंतराय सहन करना। यह शर्त स्वीकार करके प्रभावती ने सर्वविरति ग्रहण की। पश्चात् अनशन करके मृत्यु होने पर प्रथम देवलोक में महर्द्धिक देवता हुई।
(गा. 415 से 426) देवाधिदेव की प्रतिमा जो अंतःपुर के चैत्य में स्थापित की थी उसकी देवदत्ता नामकी प्रभावती की कुब्जा दासी उस ही प्रकार पूजा करती थी। देवता बनी प्रभावती ने अनेक प्रकार से उदयन राजा को प्रतिबोध करने का प्रयत्न किया, परंतु वह प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ। तब अवधिज्ञान द्वारा उसका उपाय चिंतन करके उसने प्रयोग किया। एक बार वह प्रभावती देव तापस के रूप में हाथ में दिव्य अमृतफल से परिपूर्ण पात्र हाथ में लेकर उदयन राजा के पास आया। एक तो तापस और फिर वह इस प्रकार की उत्तम भेंट लेकर आया, तो सोने में सुगंध जैसा हो गया। तापसों के भक्त राजा ने उस तापस का बहुत का बहुत सन्मान किया। पश्चात् मानो परमानंद का बीज हो वैसे पक्व और कर्पूर की सुगंध से सुगन्धित वे इष्ट फल राजा ने भक्षण किये। उससे प्रसन्न होकर राजा ने उस तापस से पूछा कि, 'हे महाशय! ऐसे अपूर्व फल आपको कहाँ से संप्राप्त हुए? वह स्थान मुझे बताईये। तापस ने कहा, 'इस नगर के समीप 'दृष्टिविश्राम' नामक एक आश्रम है, उसमें ये फल होते हैं। राजा को कहा 'चलो मुझे वह आश्रम बताओ' तब वह देवता राजा ने मानो विद्या देनी हो वैसे वहां से अकेला ही साथ लेकर चल दिया। थोड़ी दूर जाने पर उसने अपनी दिव्य शक्ति से वैसे ही फलों से मनोरथ एवं अनेक तापसों से व्याप्त ऐसा नंदनवन जैसा एक उद्यान दिखलाया 'यह तापसों का वन है और उन पर मेरी भक्ति है। इसलिए अब यहाँ मेरी फलों की इच्छा पूर्ण होगी। ऐसा सोचकर राजा वानर की भांति फल लेने के लिए दौड़ा। तो वे सभी मायावी तापस क्रुद्धित होकर उनके समाने दौड़े आए एवं राजा को मारने लगे। इससे कुपित होता हुआ वह नष्ट बुद्धि वाला राजा भी चोर के समान भागने लगा। भागते भगते उसने आगे के भाग में साधुओं को खड़ा हुआ देखा। उन्होंने राजा ‘भयभीत मत हो' ऐसा कहा तब राजा उनकी शरण में गया। उनके द्वारा दिये आश्वासन से राजा
270
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)