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उपवास तक उज्जवल तप आदर ! अंत में तपस्या से कृश होकर, भाव संलेखना करके, परमात्मा वीरप्रभु की अनुमति लेकर उसने वैभार पर्वत पर पादपोपगम अनशन किया। शुभ ध्यान पूर्वक पंच परमेष्ठी नमस्कार का स्मरण करते हुए रोहिणेय महाम ुनि मनुष्य देह का त्याग करके स्वर्ग सिधाये ।
(गा. 103 से 110)
भगवंत श्री वीर प्रभु जघन्य से कोटि देवताओं से परिवृत तीर्थकृत नामकर्म की निर्जरा करने के लिए विचरण करने लगे । धर्मदेशना द्वारा कितनेक राजा मंत्री आदि को श्रावक बनाये और कितनेक को यति बनाये । इधर श्रेणिक राजा राजगृही नगरी में समकित धारण करके नीति से राज्य का पालन करते थे। इतने में एक वक्त चंडप्रद्योत राजा उज्जययिनी नगरी से सर्व सामग्री सहित राजगृही नगरी को रोंदने के लिए चल पड़ा। चंडप्रद्योत राजा और उसके साथ अन्य मुकुटबंध चौदह राजा मानों पंद्रह परमाधार्मिक हो इस प्रकार लोगों ने उनको नजरों से देखा। सुंदर गति से चलते अश्वों से मानों पृथ्वी की फोडता हो, इस प्रकार आते हुए चंडप्रद्योत राजा के समाचार बातमीदारों (गुप्तचरों) ने श्रेणिक राजा को दिये । तब श्रेणिक राजा चिंतित हो गये कि क्रूर ग्रह के सदृश क्रोधित प्रद्योत राजा को यहाँ आते हुए कैसे अटकाना ? औत्पातिकी आदि बुद्धि के निधान रूप अभयकुमार के मुख के सन्मुख श्रेणिकराजा ने अमृत जैसी दृष्टि से देखा। तब यथार्थ नाम वाले अभयकुमर ने कहा कि उज्जयिनी नगरी का प्रद्योत मेरे युद्ध का अतिथि हो, इसमें चिंता क्या करनी ? और फिर यदि उसे परास्त करने का काम बुद्धिसाध्य लगेगा तो मैं शास्त्रास्त्र की कथा के साथ उसमें मेरी बुद्धि का भी प्रयोग करूँगा क्योंकि "बुद्धिशत्रु का विजय करने में कामधेनु जैसी है।"
(गा. 111 से 120 )
तब अभयकुमार शत्रु के सैन्य के निवास योग्य भूमि में लोहे के संपुट में सौनेया भर भर के गाड़ने लगा । इतने में तो समुद्र के जल से भूगोल भांति प्रद्योत राजा के सैनिकों ने राजगृह पुरी को घेर लिया। अभयकुमार ने देव जैसी मधुर वाणी बोलने वाले गुप्त पुरुष द्वारा प्रद्योत राजा को एक गुप्त लेख भेजा । उसमें लिखा कि “शिवा देवी और चिल्लणा देवी में मैं किंचित् मात्र भी अंतर देखता नहीं हूँ, इसलिए आप भी शिवादेवी के संबंध से मेरे माननीय हो । हे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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