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किसी प्रयोजन से कौतुक होने से आज यहाँ आया था, और किसी देवालय में रात्रि में रहा था। रात्रि व्यतीत होने पर वहाँ से पुनः घर जाने को निकल ही रहा था कि राक्षस जैसे कोतवाल और उसके सिपाहियों ने मुझे झड़प लिया। तब उनसे भयभीत होकर में किला उलंघन करके भागने लगा। आप जानते ही हैं कि 'प्राणियों को बड़े से बड़ा भय प्राणों का है।' मध्यभाग के रक्षकों के हाथों से में जैसे तैसे छूट गया, परंतु पुनः बाध्य रक्षकों के हाथों में मछुआरे के हाथ में से छूटी हुई मछली जैसे जाल में फँस जाती है, वैसे मैं भी आ गया। तब वे मुझ निरपराधी को चोर की भांति बांधकर यहाँ ले आए। इसलिए हे नीतिमान् राजा! अब न्यायपूर्वक विचार कर जैसा भी करना हो करें।" तब राजा ने उसकी प्रवृत्ति के समाचार जानने के लिए उसके बताए हुए गांव में गुप्तचरों को भेजा। परंतु उस चोर ने तो पहले से ही उस गांव के लोगों को संकेत कर ही रखा था। क्योंकि कितनेक चोर लोगों के मन में भी विचित्र चिंतन हुआ करता है। राजपुरुष ने उस गांव में जाकर पूछा। तब लोगों ने कहा कि, हाँ! यहाँ एक दुर्गचंडनाम का कुटुम्बी रहता है। परंतु वह अभी यहाँ से अन्य गांव में गया हुआ है। राजा ने उनके द्वारा कही हकीकत राजा से कह सुनाई। तब अभयकुमार को विचाराधीन होकर गए, 'अहो! अच्छी तरह रचित दंभ को अंत को ब्रह्माजी भी नहीं जान सकते।'
(गा. 34 से 52) तब अभयकुमार ने देवता के विमान जैसा महा मूल्यवान् रत्नजड़ित सात मंजिल के महल में उसे रखा। वह महल मानो स्वर्ग से गिरा अमरावती का एक खंड हो, ऐसा ज्ञात होता था। उसमें गंधर्व संगीत का महोत्सव करते थे। इससे वह अकस्मात् उत्पन्न हुआ गंधर्व नगर की शोभा को सूचित करते थे। अभयकुमार ने उस चोर को मद्यपान कराकर मूर्छित कर दिया और उसे देवदूष्य वस्त्र पहनाकर उस महल में शय्या पर सुला दिया। जब उसका नशा उतर गया, तब वह चारों ओर देखने लगा तो अकस्मात् विस्मयकारी अपूर्व दिव्य संपत्ति उसे दृष्टिगोचर हुआ। उसी समय अभयकुमार की आज्ञा से नर-नारी का समूह जय हो जगत में आनंद करो' ऐसी मंगलध्वनि पूर्वक उसको कहा कि, “हे भद्र! आप इस विशाल विमान में देवता हुए हो आप हमारे स्वामी हो! और हम आपके किंकर हैं, इसलिए इन अप्सराओं के साथ इंद्र की भांति क्रीड़ा करो।" इस प्रकार अनेक प्रकार के खुशामत भरे वचनों से चतुराई युक्त वचनों से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)