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हैं। कोतवाल बोला कि, 'महाराज ! कोई रोहिणेय नामका चोर नगरजनों को इस प्रकार लूंटता है कि हमारे देखने पर भी पकड़ा नहीं जा सका है। बिजली की उछलती किरणों की भांति वह उछलकर बंदर के समान कूदकर एक हेलामात्र में तो वह घर से दूसरे घर में पहुँच जाता है और नगर का किल्ला भी उलांघ जाता है। हम उसके जाने के मार्ग में पीछे पीछे भी जाते हैं, पर वह वहाँ दिखाई ही नहीं देता । एक पगला भी छूट जाता है, तो वह हमसे सौ पगले दूर चला जाता है। मैं तो उसे पकड़ने में या उसके हनन करने में शक्तिमान् नहीं हूँ । इसलिए आप आपके द्वारा प्रदत्त कोतवालपन का अधिकार खुशी से वापिस ले लीजिए।” तब राजा ने भृकुटि की संज्ञा से सूचित किया, तब अभयकुमार ने कोतवाल से कहा कि "तुम चतुरंग सेना को सज्ज करके नगर के बाहर रखो, पश्चात् जब चोर अंदर घुसे तब लश्कर उसे चारों ओर से घेर लेवे और अंदर से उस चोर को त्रास देने का । तब पाश में हिरण आ जाता है, वैसे ही वह चोर भी बिजली के चमकारे की तरह उछलकर स्वयमेव सैन्य को पकड़ में आ जावेगा। पश्चात् मानो उसके जमानत देने वाले हों, वैसे उस महाचोर को प्रमाद रहित सावधान रहे सुभटों को उसे पकड़ लेना ।
(गा. 26 से 33 )
इस प्रकार अभयकुमार की आज्ञानुसार कोतवाल वहाँ से निकला और गुप्तरीति से सेना को सज्ज किया । राजा ने आज्ञा दी, उस दिन रोहिणेय अन्य गांव में गया हुआ था, इसलिए उसे इस बात का पता नहीं चला। जब वह दूसरे दिन पानी में हाथी घुसे उसी भांति नगर में घुसा और वह वहाँ नगर के घेरा किया हुआ सैन्य के जाल में मछली की तरह पकड़ा गया। उसे बांधकर कोतवाल ने राजा के समक्ष पेश किया । “राजनीति के अनुसार सत्पुरुषों की रक्षा एवं दुर्जनों का निग्रह राजा को करना चाहिये, इससे इसका निग्रह करो। " ऐसा कहकर राजा ने उसे अभयकुमार को सौंप दिया। अभयकुमार ने कहा कि - छल द्वारा पकड़े हुए चोरी के माल समान के साथ अथवा उसकी कबूलात के सिवा इस चोर का निग्रह करना योग्य नहीं है । इसलिए उसका निग्रह विचार पूर्वक करना चाहिए । तब राजा ने रौहिणेय से पूछा कि, तूं कहाँ का रहनेवाला है ? तेरी आजीविका कैसे चलती है ? तू इस नगर में किसलिए आया है ? तेरा नाम रोहिणेय कहते है, वह सही है ? अपना नाम सुनकर शंकित हो कर उसने राजा से कहा कि "मैं शालिग्राम में रहने वाला दुर्गचंड नामका कुटुम्बी हूँ ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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