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उसी नगर में धन्य नामक एक बड़ा धनाढ्य सेठ रहता था, जो कि शालिभद्र की कनिष्ट भगिनी का पति था। अपने बंधु के ये समाचार सुनकर अपने पति को स्नान कराते समय शालिभद्र की बहन की आंख में आँसू आ गये। यह देखकर धन्य ने पूछा कि, 'तुम किस कारण से रो रही हो?' तब वहगद्गद् स्वर में बोली कि- 'हे स्वामी! मेरे भाई शालिभद्र व्रत लेने के लिए प्रतिदिन एक एक स्त्री का एवं शय्या का त्याग कर रहे हैं, इसलिए मुझे रुदन आ रहा है। यह सुनकर धन्य ने मश्करी (मजाक) में कहा कि, 'जो ऐसा करता है वह तो सियाल के समान डरपोक माना जाय। अतः तेरा भाई भी हीनसत्त्व लगता है।" यह सुनकर उनकी अन्य स्त्रियाँ भी बोल उठी कि 'हे नाथ! यदि व्रत लेना सरल है, तो आप क्यों नहीं ले लेते?' धन्य बोले- 'मुझे व्रत लेने में तुम ही विघ्न रूप थी, जो आज पुण्ययोग से अनुकूल हुई, तो अब मैं शीघ्र ही व्रत लूंगा। वे बोली कि – 'प्राणेश! प्रसन्न हो जाइये! हम तो मजाक कर रही थी।' स्त्रियों के ऐसे वचनों के जवाब में 'ये स्त्रियाँ तथा द्रव्य आदि सर्व अनित्य हैं, निरन्तर त्याग करने योग्य है, इसलिए अब मैं तो अवश्य ही दीक्षा लूंगा। इस प्रकार बोलता हुआ धन्य शीघ्र ही खड़ा हो गया, तब हम भी आपके साथ दीक्षा लेंगे ऐसा सर्व स्त्रियाँ बोल उठी। अपनी आत्मा को धन्य मानने वाले महा मनस्वी धन्य ने उसमें अपनी संमति दी।
(गा. 136 से 144) इसी समय में श्री वीर प्रभु वैभारगिरि पर समवसरे। धन्य ने धर्म मित्र के कहने पर ये समाचार जाने। इसलिए शीघ्र ही दीनजनों को अत्यन्त दान आदि देकर स्त्रियों के सहित शिबिका में बैठकर भवभ्रमण से भयभीत हुआ धन्य महावीर भगवन्त के चरण-शरण में आया एवं ये समाचार सुनकर शालिभद्र अपने को विजित मानकर त्वरा करने लगा। तब श्रेणिक राजा से अनुसरित शालिभद्र एवं धन्ना ने तुरंत ही श्री वीरप्रभु के पास आकर व्रत ग्रहण किया।
(गा. 145 से 148) धन्य और शालिभद्र दोनों अनुक्रम से बहुश्रुत हुए एवं खड्गधारा सदृश महातप करने लगे। शरीर की किंचित भी अपेक्षा के बिना वे पक्ष, मास, दो मास, तीन मास, और चारमास की तपस्या करके पारणा करते थे। ऐसी उग्रतपस्या से मांस और रुधिर रहित शरीर से धन्य और शालिभद्र चमड़े की
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)