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शुभ परिणाम हो गये। उन्होंने सोचा कि “ऐसी समृद्धि के कारण इंद्र ने मुझे जीत लिया है। तथापि अब दीक्षा लेकर में उसको पराजित करूंगा। इतना ही नहीं दीक्षा लेकर केवल उस पर ही विजय नहीं करूंगा, बल्कि भव भ्रमण कराने वाले जो कर्म रुपी शत्रु हैं, उनको भी जीत लूँगा। ऐसा विचार करके विवेकी दशार्णपति ने तत्काल वहाँ ही मुकुट, कड़े आदि आभूषण उतार दिये और मानो कर्म रूप वृक्षों को मूल खींचकर निकालते हों, वैसे पंचमुष्ठि द्वारा मस्तक के केश खींचकर निकाल डाले। विस्मित नेत्रों द्वारा इंद्र के देखते देखते तो उन्होंने गणधर भगवंत के पास आकर यतिलिंग ग्रहण कर लिया। पश्चात अपूर्व उत्साह और साहसी उन दशार्णभद्र मुनि प्रभु को प्रदक्षिणा पूर्वक वंदना की। उसने वक्त इंद्र ने उनके समक्ष आकर कहा कि 'अहो महात्मन! आपका यह कोई महान् पराक्रम हैं कि तुमने मुझको कभी जीत लिया। तो अन्य की तो बात ही क्या करनी ? ऐसा कहकर इंद्र उनको नमस्कार करके अपने स्थान पर चला गया। दशार्ण भद्र मुनि उत्तम प्रकार से व्रतों की परिपालना करने लगे एवं श्री वीर प्रभु जी ने भव्यजनों के उपकार के लिए वहां से अन्यत्र विहार किया।
(गा. 41 से 56) राजगृही नगरी के समीप शाली गांव में एक धन्या नामकी स्त्री रहती थी। उसके समग्र वंश का उच्छेद हो गया था। मात्र संगमक नामक एक पुत्र ही अवशेष रहा था। वह उसे अपने साथ ही लेकर आई थी। “क्योंकि कितने ही दुःख में भी अपने उदर से उत्पन्न संतान को छोड़ देना अशक्य है।" वह संगमक वहाँ रहकर लोगों के बछड़ों को चराता था। “गरीब बालकों को ऐसी मृदु आजीविक ही घटित हैं।" एक बार कोई पर्वोत्सव का दिन आया। उस समय घर घर में पायसान्न (खीर) बना हुआ, संगमक को दिखाई दिया। इससे उस मुग्ध बालक ने घर जाकर अपनी दीन माता के पास खीर को मांग की। वह बोलीयाँ, पुत्र मैं तो दरिद्री हूँ, मेरे पास पायसान्न कहाँ से हो? अज्ञता से जब बालक बार-बार खीर मांगने लगा, खीर खाने की जिद्द करने लगा, तब धन्या अपने पूर्व वैभव का स्मरण करती हुई तार स्वर से रुदन करने लगी। उसके रुदन दुःख से जिनका हृदय बींध गया, ऐसी पड़ौसिनों के आकर उसके दुःख का कारण पूछा। तब धन्या ने गद्गद् स्वर से अपने दुःख का करण कहा। तब उन सबने मिलकर दूध आदि सर्व साम्रगी लाकर दे दी। तब उसने खीर बनाई। एक थाली में उसे थोड़ी खीर परोस कर वह किसी गृहकार्य में लग गई। उस
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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