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प्रकाश प्रवेश होने पर अधिक चमकता था एवं जल की चपल तरंग मालाओं से वे पताकाओं की शोभा की धारण करती ऐसे जलकांत विमान में इंद्र देवतओं के साथ बैठा। उस समय हजारों देवांगनाएँ उनको चंवर ढुलाने लगी एवं गंधर्वगण प्रारंभ किये संगीत में वह कुछ कुछ कान लगाने लगा। इस प्रकार प्रभु के चरणों से पवित्र ऐसी पृथ्वी पर बीच दृष्टि करता हुआ इंद्र मनुष्य लोक में आया। नीचे नीचे उतरते उतरते मरकत मणि के नाल से विराजित सुवर्ण के कमल पर मानो चरण सहित पर्वत हो इस प्रकार चरण रखता रखता मणिमय आठ दंत शूल से शोभित और देवदूष्य वस्त्रों से जिसका पृष्ट भाग आच्छादित था, ऐसे ऐरावण हाथी पर इंद्र आरुढ हुआ। उस समय वहाँ उस हस्ति पर पूर्व में ही आरुढ़ हुई देवांगनाओं ने उनको हाथ से सहारा दिया। उसके पश्चात् जिनेन्द्र प्रभु के चरणों में वंदन को इच्छुक भक्तजनों में शिरोमणि इंद्र ने भक्तिभावित चित्त से उस समवसरण में प्रवेश किया। उस समय उसके जलकांत विमान में आई हुई क्रीड़ा वापिकाओं में स्थित प्रत्येक कमल के अंदर संगीत होने लगा। प्रत्येक संगीत में इंद्र के समान वैभववाला एक एक सामानिक देव दिव्य रूप और सुंदर वेश युक्त दिखाई देने लगा। प्रत्येक देव का परिवार इंद्र के परिवार के सदृश महर्द्धिक और विश्व को विस्मयकारक था। इस प्रकार की विमान की समृद्धि से इंद्र स्वयं विस्मित हो गया तो अल्प समृद्धि वालों अन्यों की तो बात ही क्या?
(गा. 26 से 40) तत्पश्चात् सुर-नरों से विस्मित होकर दृष्ट उस इंद्र ने कंठ में आरोपित हार पृथ्वीतल पर लोटाते हुए प्रभु को बारम्बार नमन किया। इंद्र की इस प्रकार की पारावार समृद्धि देखकर दशार्णभद्र राजा तो जिस प्रकार शहर की समृद्धि देखकर ग्राम्यजन स्तंभित हो जाते है, वैसा हो गया। तब विस्मय से विकसित नेत्रों से उसने विचार किया कि, 'अहो! इन्द्र के विमान की कैसी लोकोत्तर शोभा है ? अहो! इस ऐरावण हाथी के गात्र कितने सुंदर है ? अहो! इस इंद्र के वैभव का विस्तार तो अलौकिक ज्ञात होता है। अरे! मुझे धिक्कार है कि जो मैंने मेरी संपत्ति था अभिमान किया। मेरी और इंद्र की समृद्धि में तो गड्ढे और समुद्र जितना अंतर है। मैंने मेरी इस समृद्धि के गर्व से मेरी आत्मा को तुच्छ बना दिया। पूर्व में ऐसी समृद्धि नहीं देखने की वजह से मैं कूप मंडूक जैसा था। ऐसी भावना भाते हुए धीरे धीरे वैराग्य वासित हो जाने पर, अल्प कर्म के कारण
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)