________________
रूप में धर्मोपदेश करके उसने नगरजनों के मन को हर लिया। परंतु ये समाचार सुनकर भी परम श्राविका सुलसा वहाँ देखने तक नहीं गई।
(गा. 285 से 290) तब चौथे दिन उसने उत्तर दिशा में तीन गढ़ से सुशोभित और देदीप्यमान तोरणों से युक्त दिव्य समवसरण विकुर्वित किया एवं उसमें स्वयं जिनेश्वर होकर बैठा। यह सुनकर नगरजन विशेष विपुल समृद्धि सहित वहाँ आकर धर्म श्रवण करने लगे। यह समाचार सुनकर श्री सुलसा वहाँ नहीं गई। तब अंबड ने उसे चलायमान करने के लिए एक पुरुष को वहाँ भेजा। उसने आकर इस प्रकार कहा कि, हे सुलसा! श्री विश्वस्वामी जिनेश्वर नगर के बाहर समवसरे हैं। हे भद्रे! उनको वंदन करने में किसलिए विलंब कर रही हो? सुलसा बोली कि, “चौवीसवें तीर्थंकर जगद्गुरु श्री वीर प्रभु नहीं है।" वह बोला कि “अरे मुग्धे! ये तो पच्चीसवें तीर्थंकर हैं, अतः उनको प्रत्यक्ष आकर देखो।' सुलसा बोली, 'कभी भी पच्चीसवें तीर्थंकर हो ही नहीं सकते। इसलिए यह तो कोई कपट बुद्धि वालामहापाखंडी लगता है। वह बिचारे भोले लोगों को ठग रहा है।" वह बोला – भद्रे! ऐसा मत बोलो। इससे तो जैन शासन की प्रभावना होगी। इससे तुमको क्या हानि होने वाली है ? इसलिए वहाँ चलो।" सुलसा बोली, ऐसे खोटे प्रपंच से कोई जैन शासन की प्रभावना नहीं होती, बल्कि उससे अप्रभावना होती है।" इस प्रकार सुलसा को अचलित मनवाली देखकर अबंड हृदय में प्रतीति लाकर चिंतन करने लगा कि, जगद्गुरु श्री वीरप्रभु ने भरसभा में इस सती की संभावना की, वह युक्त ही है। क्योंकि विशालमाया करके भी मैं उसे समकित से चलित नहीं कर सका। तब अपना सर्व प्रपंच संहरण करके वह मूलरूप से नैषेधिकी बोलता, हुआ सलसा के घर में गया। सुलसा ने सामने आकर कहा, हे धर्मबंधु! जगदबंधु! श्री वीर के उत्तम श्रावक! आपका स्वागत है! इस प्रकार कहकर माता ने समान वात्सल्य से सुलसा ने उसके चरण पखारे
और अपने गृहचैत्य के दर्शन कराये। चैत्यवंदन करके शुद्ध बुद्धि से अंबड बोला, 'भद्रे! मेरे वचन से तू शाश्वत चैत्यों की वंदना कर।' पश्चात् पृथ्वीपर मस्तक नमाकर उसने मानो प्रत्यक्ष देख रही हो वैसे मन में भक्ति भाव से वंदना की। अंबड़ ने पुनः कहा कि 'इस जगत में तू एक गुणवती है कि जिसके समाचार वीरप्रभु ने पूछे हैं।' यह सुनकर सुलसा ने हर्षित होकर वीरप्रभु को वंदना की साथ ही रोमांचित शरीर से उत्तम वाणी से प्रभु की स्तुति की। पुनः
230
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)