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होने स्वरूप बोधि बीज उपार्जन किया एवं गौतम स्वामी का अनुगमन करने लगे। प्रभु के पास जाते ही प्रभु की देखते ही सिंह आदि के पूर्वभव के वैरभाव से उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। इससे उसने गौतम स्वामी से पूछा, कि,- 'हे गुरु महाराज! ये सामने बैठे हैं, वे कौन? गौतम बोले- ये मेरे धर्माचार्य जिनेश्वर। हालिक ने कहा कि, यदि ये आपके गुरु हैं तो मुझे आपके साथ भी कोई काम नहीं है और न ही आपकी दीक्षा भी मुझे चाहिए ऐसा कहकर रजोहरण आदि को छोड़कर तुरंत ही वह चला गया एवं अपने क्षेत्र में आकर पुनः हल आदि ग्रहण किये।
(गा. 1 से 15) गौतम ने प्रभु को नमन करके पूछा कि, “भगवन्! आप सदृश समग्र लोक को आनंद करने वाले पुरुष पर भी इसे द्वेष उत्पन्न हुआ यह देखकर मुझे आश्चर्य होता है। हे नाथ! आपको देखते ही उसने स्वीकार किया हुआ चारित्र भी छोड़ दिया। इसका क्या कारण? साथ ही वह पहले तो मुझ पर प्रीतिमान् था, परंतु 'ये मेरे गुरु हैं' जब मैंने ऐसा कहा तब वह मेरा भी द्वेषी हो गया, यह कैसे ? प्रभु ने फरमाया- मैंने त्रिपृष्ठ के भव में जिस सिंह को मारा था, उसका वह जीव ही यह कृषक है। उस समय क्रोध से फडफडाते उस सिंह को तुमने सामवचन से शांत किया था। उस समय तुम मेरे सारथि थे। तब से ही वह मुझ पर द्वेषी और तुम पर स्नेही हो गया था। इसीलिए उसे बोध कराने के लिए मैंने तुमको भेजा था।' इस प्रकार कहकर प्रभु ने वहाँ से विहार किया।
(गा. 16 से 20) प्रभु अनुक्रम से पोतनपुर में पधारे। वहाँ नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में भगवंत समवसरे। पोतनपति प्रसन्नचंद्र राजा प्रभु को वंदन करने के लिए आए। मोह का नाश करने वाली प्रभु की देशना उन्होंने श्रवण की। प्रभु की देशना श्रवण करके प्रसन्नचंद्र को राजा संसार से उद्वेग हो गया और अपने बालकुमार को राज्य सिंहासन पर बिठाकर उन्होंने तत्काल व्रत ग्रहण किया। प्रभु के साथ विहार करते हुए एवं उग्र तपश्चर्या करके वे प्रसन्नचंद्र राजर्षि अनुक्रम से सूत्रार्थ के पारगामी हुए। अन्यदा उन प्रसन्नचंद्र राजर्षि एवं अन्य मुनिराजों से परिवृत्त श्री वीरप्रभु राजगृह नगरी में पधारे। प्रभु के दर्शन को उत्कंठित श्रेणिक राजा पुत्रादि परिवार के साथ हाथी, घोड़ो की श्रेणी के द्वारा
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)