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विचार करने लगा कि “अरे रे ! मैं मारा गया ! यदि मैं यह कथन मानूं और तथा प्रकार से आचरण न करूं तो मैंने जिनेश्वर को भी माना न कहा जाय । क्योंकि यह सर्वज्ञ का ही वचन है । इसलिए मैंने अर्हन्त के इस एक वचन को भी अन्यथा धारण किया। इसलिए इसका प्रायश्चित मुझे अभी ही कर लेना चाहिए। इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ वह उन प्रत्येक बुद्ध महामुनि के पास गया। वहाँ भी धर्म के व्याख्यान में उसने सुना कि मुनि को मन वचन काया से पृथ्वीकाय आदि जीवों का समारंभ त्याग देना चाहिये ।' यह सुनकर पुनः ईश्वर ने सोचा 'इस प्रकार तो कौन पालन कर सकता है ? कौन पृथ्वीकायादि का त्रिधा आरंभ नहीं करते हैं ? ये मुनि भी तो पृथ्वी पर बैठते हैं, आहार करते हैं, और अग्निपक्व जल पीते हैं । ये कटुवादी तो अपने से भी पालन न हो सके, ऐसा बोलते हैं। इसलिए इससे तो वे गणधर अच्छे हैं, यद्यपि उनकी भी वाणी तो विरुद्ध है। इसलिए मुझे इन दोनों की कोई जरुरत नहीं है । मैं स्वयं ही ऐसा धर्म कहूं कि, जिसे लोग अविरक्त रूप से सुखपूर्वक पालन कर सके। ऐसा चिंतवन करते समय उसके मस्तक पर बिजली गिरी। फलस्वरूप मरकर वह सातवीं नरक में नारकी हुआ । श्रुत, जैन शासन और समकित के प्रत्यनीक पने से बांधे हुए तीव्र पाप के फलस्वरूप वहाँ चिरकाल तक दुःख भोगकर वह यहाँ में समुद्र मत्स्य हुआ। वहाँ से यहाँ काकपक्षी हुआ । वहाँ से पहली नरक में गया। वहाँ से वह दुष्ट तिर्यंच रूप में उत्पन्न हुआ । पश्चात् पुनः पहली नरक में जाकर गधा बना। वैसे छः भव करके मनुष्य हुआ । वहाँ से मृत्यु के पश्चात् वनचर हुआ, उसके बाद बिल्ली होकर नरक में गया । वहाँ से कृमि से आकुल व्याकुल कुष्ट व्याधिवाला कुंभार बना । उस भव में पचास वर्ष तक कृमियों का भक्ष होकर अंत में मृत्यु प्राप्त कर पुनः सातवीं नरक में गया । इस प्रकार मनुष्य तिर्यञ्च एवं नरक गति में भ्रमण करके वह गोशाला हुआ । पूर्वभव के अभ्यास से तथा दुष्ट वासना के आवेश से वह तीर्थंकर, धर्म और साधुओं का अत्यंत द्वेषी था ।
(गा. 513 से 541 )
इस प्रकार प्रभु के वचन श्रवण कर अनेक लोग प्रतिबोध को प्राप्त हुए । अनेकों ने संसार से उद्वेग प्राप्त कर दीक्षा लेली और कितनेक ने श्रावक व्रत अंगीकार किया ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
(गा. 542 )
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