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को बोध करके पृथ्वी पर विहार करके अंत में गोशाला का जीव कर्म का क्षय करके निर्वाण पद को प्राप्त करेगा ।
(गा. 471 से 512 )
गौतम ने पुनः पूछा कि भगवन्! पूर्व के किस कर्म से गोशाला आपको प्रतिकूल हुआ ? प्रभु ने फरमाया- 'इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में गत चौवीसी में उदाय नामके एक तीर्थंकर हुए थे। उनके मोक्षमहिमा करने के लिए सुरअसुर आये। उस समय नजदीक में रहे एक मनुष्य को वह सब देखकर जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उस महाशय ने प्रत्येक बुद्ध होकर तत्काल ही दीक्षा ले ली। तब शासन देवता ने उनको व्रती का लिंग (वेश आदि) अर्पण किया। लोगों से पूजित वे महामुनि घोर तपस्या करने लगे । उनको देखकर किसी ईश्वर नाम के दुर्मति ने उसके पास आकर पूछा कि, “तुझे किसने दीक्षा दी? तू कहाँ पैदा हुआ है ? तेरा कौन सा कुल है ? और सूत्र तथा अर्थ किसके पास ग्रहण किया है?” उन प्रत्येक बुद्ध महामुनि ने उसके प्रत्येक प्रश्न का जवाब दिया। यह सुनकर ईश्वर ने विचार किया कि यह साधु दंभ से प्रजा का भक्षण कर रहा है । मुझे लगता है कि जैसा इसने कहा है वैसा जिनेश्वर भी कहेंगे। अथवा मोह रहित प्रभु ऐसा नहीं भी कहें। इसलिए चलो मैं उनके पास जाऊँ और सर्व दुःखों को नाश करने वाली दीक्षा का अभिनन्दन करुं । ऐसा चिन्तन करके वह जहाँ प्रभु थे वहाँ गया । परंतु वहाँ प्रभु का निर्वाण हो जाने से दृष्टिगत नहीं हुए । तब उसने दीक्षा ली । कपि की तरह मंद बुद्धि वाले उसे मोहगर्भित वैराग्य उत्पन्न हुआ था | प्रभु के मोक्षगमन के पश्चात् गणधर महाराज ने पर्षदा में बैठकर जैसा सूत्रार्थ श्री जिनेश्वर परमात्मा ने फरमाया था, वैसा ही प्ररूपित किया। उन्होंने उपदेश दिया कि, 'जो पृथ्वीकाय के एक जीव का भी हनन करत है, वह जिनेन्द्र के शासन में असंयती कहा जाता है।' यह सुनकर ईश्वर ने विचार किया कि पृथ्वीकायिक जीवों का तो सर्वत्र मर्दन होता ही है, उनका सर्वथा रक्षण करने में या उनको देखने में कौन समर्थ है ? यह वाक्य ही श्रद्धा करने योग्य नहीं है, केवल मुनि की लघुता के लिए ही है । जैसे उन्मत्त बोले वैसे ये वाक्य सुनने पर भी उसके समान आचरण कौन करता है ? यदि ऐसा कहना छोड़कर ऐसा कोई मध्यम पक्ष के साधु जीवन की बात कहते हो तो उस पर अवश्य सर्व लोग अनुरक्त हो जावें। ऐसा विचार करके वह पुनः पुनः
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
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