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तपस्या से कृश हुए एवं गुर्वाज्ञा से एकाकी विचरण करते हुए अन्यदा विश्वभूति मुनि मथुरा पुरी में आए। उस समय वहाँ के राजा की राजपुत्री से विवाह करने हेतु विशाखनंदी राजपुत्र भी मथुरा में आया था। विश्वभूति मुनि मासक्षमण के पारणे हेतु नगरी में आए। जहाँ विशाखनंदी की छावनी थी, उसके समीप आने पर उसके व्यक्तियों ने उनको पहचान कर “ये विश्वभूति कुमार जा रहे हैं' ऐसा कहकर विशाखनंदी को भी बताया। शत्रु की भांति उसे देखते ही विशाखनंदी क्रोधित हो गया। इतने में विश्वभूति मुनि किसी गाय की टक्कर से पृथ्वी पर गिर पड़े। यह दृश्य देख “कठुम्बर (कपित्थ) के फल गिराने वाला तेरा बल अब कहाँ गया? यह व्यंगकस कर विशाखनंदी हंसा। उसके वचनों को सुनकर विश्वभूति ने क्रोधित होकर उस गाय को सींगों से पकड़ कर आकाश में घुमाई। पश्चात् ऐसा नियाणा किया कि “इस उग्र तपस्या के प्रभाव से भवांतर में अतिपराक्रमी होकर इस विशाखनंदी को मारने वाला होऊ ? पश्चात् एक कोटि वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर पूर्वबद्ध नियाणा जन्य पाप की आलोचना किये बिना मृत्यु के पश्चात् वह विश्वभूति महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट आयुष्य वाला देव हुआ।
(गा. 101 से 107) इसी भरतक्षेत्र में पोतनपुर नामक नगर में रिपुप्रतिशत्रु नामक एक पराक्रमी राजा था। उनकी भद्रा स्त्री से चार स्वप्नों से सूचित अचल नामका एक बलभद्र पुत्र और मृगलोचना मृगावती नाम की पुत्री हुई। एक बार यौवनवती
और रूपवती बाला जब पिता को प्रणाम करने गई, तब पिता ने उसे उत्संग में बिठाया। उसके रूप पर आसक्त हो उसके साथ स्वयं ने पाणिग्रहण करने का उपाय विचार कर उसको विदा किया।
(गा. 108 से 111) रिपुप्रति शत्रु राजा ने नगर के वृद्ध पुरूषों को बुलाकर पूछा कि “अपने स्थान में जो भी रत्न उत्पन्न हो, वे किसके कहें जाय?' उसका निर्णय करिए। उन्होंने कहा कि, वे रत्न आपके ही कहे जाये।" इस प्रकार तीन बार उनसे कहलवाकर राजा ने मृगावती से विवाह के लिए उसको राज्यसभा में बुलवाया। यह देखकर नगर के लोग लज्जित हुए। राजा गान्धर्वविधि से मृगावती पुत्री को स्वयमेव ही परणा। यह देख लज्जा और क्रोध से आकुल हुई उसकी माता
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)