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भाई युवराज था। उस युवराज के धारिणी नाम की स्त्री थी । मरीचि का जीव पूर्व जन्म में उपार्जित शुभकर्म से विशाखभूति युवराज की धारिणी पत्नि से विश्वभूति नाम का पुत्र अवतरित हुआ । उस विश्वभूति ने अनुक्रम से यौवन वय प्राप्त की। एक वक्त नंदन वन में देवकुमार के समान वह विश्वभूति अंतःपुर सहित पुष्पकरंडक नामक उद्यान में क्रीड़ा करने गया । वहाँ वह क्रीड़ा कर ही रहा था कि उस समय राजा का पुत्र विशाखनंदी - क्रीड़ा करने की इच्छा से वहाँ आया । परंतु विश्वभूति अंदर होने से वह बाहर ही रहा । उस समय पुष्प लेने हेतु उसकी माता की दासियाँ वहाँ आई । उसने उस विश्वभूति को अंदर और विशाखनंदी बाहर रहा हुआ देखा । दासियों से समाचार सुनकर प्रियंगु रानी कुपित हो कोपभवन में जा बैठी। राजा ने रानी का इच्छा पूर्ण करने के लिए यात्रार्थ जाने हेतु भेरी बजवाई। और कपटपूर्वक सभा में बोले कि, “अपना पुरुषसिंह नामका सामंत उद्धत हो गया है। इसलिए उस पर विजय प्राप्त करने लिए मैं जाऊंगा। यह हकीकत जानकर सरल स्वाभावी विश्वभूति वन में से राज्यसभा में आया और भक्तिपूर्वक राजा के स्थान पर स्वयं ने लश्कर के साथ प्रयाण किया। वह पुरुषसिंह सामंत के पास गया, परंतु वहाँ उसे आज्ञावंत देख लौट आया। मार्ग में पुष्पकरंडक वन के पास आया, तब द्वारपाल ने उसे अंदर जाने से रोका और कहा कि, "अंदर विशाखनंदी कुमार हैं" यह सुन विश्वभूमि सोचने लगा “मुझे कपट से पुष्पकरंडक वन में से निकाल दिया । अतः क्रोधित होकर उसने कठुम्बर के वृक्ष पर मुष्टि से प्रकार किया । जिससे उस वृक्ष के सारे फल गिरने से पृथ्वी आच्छादित हो गई । विश्वभूति द्वारपाल को यह पराक्रम बताते हुए बोला कि “यदि पिता श्री पर मेरी भक्ति नहीं होती तो मैं इन कठुम्बर के फलों की भांति तुम सभी के मस्तक भी भूमि पर गिरा देता । परंतु उन पर भक्ति होने से मैं ऐसा नहीं कर सकूंगा । परंतु इस वंचना युक्त भोगों की अब मुझे आवश्यकता भी नहीं हैं।" ऐसा बोलता हुआ उस विश्वभूति ने संभूति मुनि के पास जाकर चारित्र ग्रहण कर लिया । उसे दीक्षित हुआ जान विश्वनंदी राजा अनुजबंधु सहित वहाँ आये और उसको नमस्कार करके, क्षमा करने एवं राज्य लेने के लिए प्रार्थना करने लगे । परंतु विश्वभूति को राज्येच्छा रहित जान राजा स्वस्थान लौट गये, तथा विश्वभूति मुनि ने गुरु के साथ अन्यत्र विहार कर दिया ।
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व )
(गा. 86 से 100 )
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