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आकर उसे कहा कि, 'कल प्रातः काल में महाब्रह्म और त्रिलोक पूजित सर्वज्ञ प्रभु यहाँ आयेंगे। उनको पीठ फलक और संस्तारक आदि के द्वारा उनकी तू सेवा करना।' इस प्रकार तीन बार कहकर वह देव अंतर्धान हो गया। शब्दाल पुत्र कुंभार ने भक्ति से विचार किया कि, 'अवश्य ही मेरे धर्मगुरु सर्वज्ञ ऐसे गोशाला ही प्रातः काल यहाँ आयेंगे।' ऐसा विचार करके वह उनकी राह देख रहा था, कि इतने में प्रातः काल में श्री वीरप्रभु सहस्रामवन नामक उद्यान में आकर समवसरे। यह हकीकत सुनकर कुंभकार ने वहाँ जाकर भगवंत को वंदना की। प्रभु ने देशना देकर कुलाल को संबोधित करके कहा कि- “हे शब्दालपुत्र! गत दिन (कल) किसी देवता ने अशोकवन में आकर तुझे कहा था कि, कल प्रातः काल में ब्रह्मा और सर्वज्ञ ऐसे अर्हन्त प्रभु यहाँ आयेंगे। तुझे उनको पीठ फलक आदि के द्वारा उपासना करनी है। उस समय तूने भी यह सोचा था कि, प्रातःकाल में गोशाला यहाँ आयेंगे।" ऐसे प्रभु के वचन सुनकर उसने चिंतन किया कि, अहो! ये सर्वज्ञ महाब्राह्मण अर्हन्त श्री महावीर प्रभु ही यहाँ पधारे हैं, तो वे मेरे नमस्कार करने योग्य हैं और सर्वथा उपासना करने योग्य हैं।' इस प्रकार विचार करके खड़े होकर प्रभु को नमन करके अंजलीबद्ध होकर बोला कि, "हे स्वामी! इस नगर के बाहर जो मेरी पांच सौ कुंभार की दुकानें हैं, उसमें विराजो और पीठ, फलक आदि जो कुछ चाहिये, वह ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह करो।" प्रभु ने उसका वचन स्वीकार किया और गोशाला की शिक्षा से उसके ग्रहण किये नियतिवाद से युक्तिपूर्वक निवृत्त कर दिया। तब उसने नियतिवाद को छोड़कर पुरुषार्थ को प्रमाण करके आनंद श्रावक की भांति प्रभु के समीप श्रावक के व्रत ग्रहण किये।
(गा. 305 से 319) उसके नियम में इतना विशेष था कि उसने भंडार, ब्याज और व्यापार में मिलाकर तीन कोटि स्वर्ण रखा और गायों का एक गोकुल रखा। उसके अग्निमित्रा नामक पत्नि थी, उसने उसको भी प्रतिबोध दिया। उसने भी प्रभु के पास जाकर श्रावक के व्रत स्वीकारे किये। पश्चात् प्रभु ने वहाँ से अन्यत्र विहार किया।
(गा. 320 से 321) गोशाला ने लोकवाणी से सुना कि 'शब्दालपुत्र ने आजीविका मत छोड़कर निर्ग्रन्थ साधुओं के शासन को स्वीकार कर लिया है। इसलिए चलो मैं वहाँ
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)