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इस प्रकार नियम लेकर हर्षित होता हुआ आनंद घर आया एवं स्वयं ने ग्रहण किये हुए गृहस्थ धर्म की सविस्तर हकीकत शिवादेवी को कही। यह सुनकर गृहिधर्म की अर्थी शिवानंदा भी अपने कल्याण हेतु शीघ्र ही वाहन में बैठकर प्रभु के चरणों में आई। प्रभु को नमन करके शिवानंदा ने भी समाधित चित्त से उनके समक्ष गृहिधर्म अंगीकार किया। पश्चात् भगवंत की वाणी रूपी सुधा के पान से हर्षित होती हुई प्रकाशित विमान जैसे वाहन पर आरुढ होकर अपने घर आई। तब गौतमस्वामी ने प्रणाम करके सर्वज्ञ को पूछा कि, 'हे स्वामी! ये महात्मा आनंद यतिधर्म को ग्रहण करेंगे? त्रिकालदर्शी प्रभु ने फरमाया कि 'आनंद श्रावक चिरकाल तक श्रावक धर्म का पालन करेगा और मरण के पश्चात् सौधर्म देवलोक के अरुणप्रभ विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाला देव होगा।
(गा. 2 58 से 264) गंगा के किनारे पर रही हंसों की श्रेणि जैसी सुंदर चैत्यध्वजाओं से सुशोभित चंपा नामक एक महानगरी थी। उसमें सर्प जैसी भुजा वाला एवं लक्ष्मी के कुलगृह रूप जितशत्रु नामका राजा था। उस नगर में कामदेव नामक एक बुद्धिमान् कुलपति रहता था। वह मार्ग में आए महान् वृक्षों के समान अनेक लोगों का आश्रयभूत था। स्थिर रही लक्ष्मी जैसी तथा भद्र आकृतियुक्त भद्रा नामक उसकी सहधर्मिणी थी। उसके छः करोड सोनैया भंडार में, छः करोड़ व्यापार में थे। दस दस हजार गाय वाले छः गोकुल थे। किसी समय पृथ्वी पर विचरण करते हुए श्री वीरप्रभु पृथ्वी के मुखमंडन सदृश वे नगर बहिउद्यान में आकर समवसरे। ये समाचार श्रवण कर कामदेव, चलता हुआ भगवंत के पास और श्रवण की अमृतरूप धर्मदेशना सुनी। पश्चात शुद्ध बुद्धि वाले कामदेव ने देव, मनुष्य और असुरों के समक्ष गुरु श्री वीरप्रभु के सम्मुख बारह प्रकार का गृहिधर्म अंगीकार किया। उसने भद्रा के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का गायों के छः गोकुल उपरांत अन्य गायों का एवं भंडार, ब्याज व व्यापार में रहे छः कोटि द्रव्य के अतिरिक्त द्रव्य का परित्याग किया। शेष अन्य वस्तुओं का भी आनंद श्रावक के समान ही नियम ग्रहण किया। प्रभु को नमन करके अपने गृह आया एवं स्वयं के ग्रहण किये श्रावक व्रत के संबंध में भद्रा को कहा। तब भद्रा ने भी प्रभु के समक्ष आकर श्रावक के व्रत ग्रहण किये।
(गा. 265 से 275)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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