________________
देकर ‘वह उसकी बहन है' ऐसा बता दिया । इस प्रकार रागद्वेषादिक से मूढ़ हुए प्राणी इस संसार में भव भव में भ्रमण करते रहते हैं और विविध दुःख के पात्र होते रहते हैं।
(गा. 198 से 227)
इस प्रकार सर्व हकीकत सुनकर वह पुरुष परम संवेग को प्राप्त कर प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण करके पुनः पल्ली में आया । वहाँ जाकर उसने चार सौ निन्यानवे चोर को प्रतिबोध दिया, तब उन सबने भी व्रत ग्रहण किया ।
(गा. 228 से 229)
योग्य समय जानकर मृगावती ने उठकर प्रभु को नमन करके कहा कि चंडप्रद्योत राजा की आज्ञा लेकर मैं दीक्षा लूंगी।' तब चंडप्रद्योत के पास आकर उसने कहा कि - "यदि आपकी संमति हो तो मैं दीक्षा ले लूँ, कारण कि मैं इस संसार से उद्विग्न हो गई हूँ और मेरा पुत्र तो तुमको ही सौंप दिया है।" यह सुनकर प्रभु के प्रभाव से प्रद्योत राजा का वैर शांत हो गया। तब उसने मृगावती के पुत्र उदयन को कौशांबी नगरी का राजा बनाया और मृगावती को दीक्षा लेने की आज्ञा दी । मृगावती ने प्रभु के पास दीक्षा अंगीकार की । उसके साथ अंगारवती आदि प्रद्योत राजा की आठ स्त्रियों ने भी दीक्षा ली। प्रभु ने कितनीक शिक्षा देकर उनको चंदना साध्वी को सौंप दिया। उन्होंने उन साध्वी की सेवा करके सर्व समाचारी ज्ञात कर ली ।
(गा. 230 से 234 )
इधर परम समृद्धि से निरुपम ऐसा वणिज ग्राम नामका एक विख्यात नगर था। उसमें पिता के समान पालनकर्ता जितशत्रु नामका प्रख्यात राजा राज्य करता था। उस नगर में पृथ्वी पर चंद्र आया हो, वैसे जिनके दर्शन से नेत्रों को आनंद हो वैसा 'आनंद' नाम का एक गृहपति रहता था। चंद्र को रोहिणी की तरह उसे 'शिवानंदा' नाम की रूप लावण्यवती एक पत्नि थी । उसने चार करोड़ सौनैया भंडार में, चार करोड़ ब्याज में, और चार करोड़ व्यापार में रोके थे । तथा गायों के चार गोकुल थे। उस नगर की ईशान दिशा में आए कोल्लाक नामक परे में उस आनंद के अनेक बंधुजन और संबंधी रहते थे। किसी समय पृथ्वी पर विचरण करते हुए त्रिशलानंदन श्री वीरप्रभु उस नगर के द्युतिपलाश नाम के उद्यान में समवसरे । राजा जितशत्रु प्रभु का आगमन श्रवण
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
191