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जिस स्त्री की बारी आती तब वह स्त्री स्नान अंगराग आदि करके सर्व आभूषण पहनकर उसके साथ क्रीड़ा करने के लिए सज्ज होती। इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी स्त्री यदि अपने वेश में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करती तो वह उसका तिरस्कार व ताड़न आदि करता था। अपनी स्त्रियों पर अति ईष्यालु भाव से उनके रक्षण में तत्पर वह सोनी नाजर (नजरबंध) की भांति कभी भी गृहद्वार को छोड़ता नहीं था। वह अपने स्वजनों को कभी भी अपने घर बुलाकर किसी भी दिन जिमाता (भोजन कराता) नहीं था। साथ ही स्त्रियों के अविश्वास से स्वयं भी अन्य किसी के घर पर जीमने जा नहीं सकता था।
(गा. 192 से 197) एक बार उसका कोई प्रियमित्र, यद्यपि उसकी इच्छा नहीं थी तथापि उसे अत्याग्रह से अपने घर भोजन हेतु ले गया। क्योंकि यह मैत्री का आद्य लक्षण है। सोनी के जाने के पश्चात उसकी सर्व स्त्रियाँ ने सोचा कि “अपने घर को, अपने यौवन का और अपने जीवन को भी धिक्कार है कि जिससे अपन यहाँ कारागृह की भांति बंदीवान होकर रहती है। अपना यह पापी पति यमदूत की तरह कभी भी द्वार छोड़ता नहीं है। परंतु आज तो वह कहीं गया है, यह अच्छा हुआ। इसलिए चलो आज तो अपन इच्छानुसार वर्तन कहें। ऐसा विचार करके सर्व स्त्रियों ने स्नान करके, अंगराग लगाकर उत्तम पुष्पमालादि धारण करके सुशोभित वेश धारण किया। पश्चात् जैसे ही वे सर्व हाथ में दर्पण लेकर अपना-अपना रूप उसमें देख रही थी कि इतने में वह सोनी वहाँ आ गया और यह देखकर
अत्यन्त क्रोधित हुआ। इससे उनमें से एक स्त्री को पकड़ कर ऐसी मारी कि जिससे वह हाथी के पैर के नीचे कुचली हुई कमलिनी की तरह मृत्यु को प्राप्त हो गई। यह देखकर अन्य स्त्रियों ने विचार किया, 'इस प्रकार तो अपन सबको ही यह दुष्ट मार डालेगा, इसलिए अपन सब इकट्ठी होकर इसे ही मार डाले। ऐसे पापी पति को जीवित रखने से भी क्या फायदा? ऐसा विचार करके उन सबने निःशंक होकर चार सौ निन्याणवे दर्पण चक्र की भांति उस पर फेंके, फलस्वरूप वह सोनी शीघ्र ही मर गया। पश्चात् वे सर्व स्त्रियाँ पश्चात्ताप करती हुई चितावत् गृह को जला कर उसके अंदर रहकर स्वयं भी जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गई। पश्चात्ताप के योग से अकाम निर्जरा होने से वे चार सौ निन्याणवें स्त्रियाँ मरकर पुरुष रूप में उत्पन्न हुई। दुर्दैवयोग से वे सब इकट्ठे मिलकर किसी अरण्य में किला बनाकर रहते हुए चोरी का धंधा करने लगे। वह सोनी मर कर तिर्यञ्च
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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