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ईंधनादि से कौशांबी नगरी को भरपूर कर दो। तब प्रद्योतराजा ने वह सर्व भी शीघ्र ही करवा दिया। “आशा पाश से वश हुआ पुरुष क्या नहीं करता।" बुद्धिमती मृगावती को ज्ञात हुआ कि, ‘अब नगरी का रोध करना योग्य है।' इसलिए उसने दरवाजे बंध कर दिये और किले के ऊपर सुभटों को चढ़ा दिया। चंडप्रद्योत राजा समूह भ्रष्ट हुए कपि की तरह अत्यन्त विक्षुब्ध होकर नगरी को घेर कर पड़ा रहा।
(गा. 147 से 180) एकदा मृगावती को वैराग्य आया कि 'जब तक श्री वीर प्रभु विचरण कर रहे हैं, तब तक ही मैं उनके पास दीक्षा अंगीकार लूं।' उसका ऐसा संकल्प ज्ञान द्वारा ज्ञात करके श्री वीर प्रभु जी सुर असुरों से परिवृत्त होकर शीघ्र ही वहाँ पधारे। प्रभु को बाहर समवसृत जानकर मृगावती पुरद्वार खोलकर निर्भयरूप से विपुल समृद्धि के साथ प्रभु के पास आई और प्रभु को वंदना करके योग्य स्थान पर बैठी। प्रद्योत राजा भी प्रभु का भक्त होने से वहाँ आकर वैर का त्याग करके बैठा पश्चात् वीर प्रभु ने एक योजन तक प्रसरती और सर्व भाषा का अनुसरण करने वाली वाणी से धर्मदेशना दी।
___ (गा. 181 से 187) 'यहाँ सर्वज्ञ प्रभु पधारे हैं' ऐसा लोगों से सुनकर कोई एक धनुषधारी पुरुष प्रभु के पास आया और नजदीक खड़ा होकर प्रभु से मन द्वारा ही अपना संशय पूछा। प्रभु ने फरमाया 'अरे भद्र! तेरा संशय वचन द्वारा भी कह यह तू सबको बता कि जिससे ये अन्य भव्य प्राणी प्रतिबोध को प्राप्त करे। प्रभु के इस प्रकार कहने पर भी वह लज्जावश होकर स्पष्टतया बोलने में असमर्थ हुआ, इससे वह अल्प अक्षरों में बोला कि, 'हे स्वामी! यासा, सासा। प्रभु ने भी अल्प अक्षरों में उसका ‘एवमेव' ऐसा उत्तर दिया। यह सुनकर गौतम स्वामी ने पूछा कि, 'हे भगवंत! ‘यासा, सासा' इन शब्दों का क्या अर्थ है ? प्रभु ने फरमाया कि
(गा. 188 से 191) "इस भरतक्षेत्र में चंपानगरी में पूर्व में एक स्त्रीलंपट सुवर्णकार था। वह पृथ्वी पर घूमता रहता था और जो जो रूववती कन्या देखता उनको पाँचसौ सुवर्ण मोहरें देकर परणता था। इस प्रकार अनुक्रम से पांच सौ स्त्रियों से उसने शादी की एवं प्रत्येक स्त्री को उसने सर्व अंग के स्वर्णाभूषण बनवाये पश्चात् जब
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)