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भ्रमण किया। अंत में अर्धमास का अनशन करके अपने उस दुष्कर्म की आलोचना किये बिना मृत्यु प्राप्त करके छठे देवलोक में किल्विष देवता हुआ।
(गा. 96 से 100) जमालि की मृत्यु हुई जानकर गौतम गणधर ने श्रीवीर प्रभु को वंदना करके पूछा कि, 'हे स्वामी! उस महातपस्वी जमालि ने कौन सी गति पाई है? प्रभु ने कहा कि 'वह तपोधन जमालि लांतक देवलोक में तेरह सागरोपम की आयुष्य वाला किल्विषिक देवता हुआ है। ‘गौतम ने पुनः पूछा कि, “उसने महाउग्रतप किया फिर भी वह किल्विषिक देव क्यों हुआ? और वहाँ से च्यवकर कहाँ जायेगा? प्रभु बोले कि - “जो प्राणी उत्तम आचारवाले धर्मगुरु (आचार्य), उपाध्याय, कुल, गण तथा संघ का विरोधी होता है, वह चाहे जितनी तपस्या करे तो भी किल्विषिका दिलकी जाति का देवता होता है। जमालि भी उस दोष से ही किल्विष देव हुआ है। वहाँ से च्यव कर पाँच पाँच भव तिर्यंच मनुष्य और नारकी में घूम घूम कर बोधि बीज प्राप्त करके अंत में निर्वाण प्राप्त करेगा। इससे कोई भी प्राणी को धर्माचार्य आदि का विरोधी नहीं होना चाहिए।" इस प्रकार उपदेश देकर भगवन्त ने वहाँ से अन्यत्र विहार किया।
(गा. 101 से 107) साकेतपुर नामक नगर में सुरप्रिय नामक एक यक्ष का देवालय था। वहाँ प्रतिवर्ष उनकी प्रतिमा को चित्रित करके लोग महोत्सव करते थे। परंतु उसे जो चित्रित करता था, उस चित्रकार को यक्ष मार डालता था और यदि कोई चित्र नहीं बनाता तो वह यक्ष सम्पूर्ण नगर में महामारी को विकुर्वित कर देता था। इससे भयभीत होकर सभी चित्रकार उस नगर से पलायन करने लगे थे। तब अपनी पूजा में महामारी के उत्पन्न होने के भय से राजा ने उनको जाने से रोका और उनकी जमानत लेकर चिट्ठियों में उनका नाम लिखकर यमराज की चौपड़ जैसे एक घड़े में सभी चिट्ठियों डाली। पश्चात् प्रतिवर्ष उसमें से एक चिट्ठी निकालने पर जिसके नाम की चिट्ठी आवे उससे चित्रकार को बुलाकर उस यक्ष की मूर्ति को चित्रित कराने लगे। इस प्रकार कितनाक समय जाने के पश्चात् एकदा कोई चित्रकार का पुत्र कौशांबी नगरी से चित्रकला सीखने के लिए वहाँ आया और किसी चित्रकार की वृद्ध स्त्री के घर उतरा। उसकी उस वृद्धा के
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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