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रहा हो उसे किया कहना' ऐसा सर्वज्ञ द्वारा भाषित तत्त्व ही ठीक है। नहीं तो उनके वचन से तुमने राज्य छोड़कर दीक्षा किसलिए ली? इन महात्मा के निर्दोष वचन को दूषित करते तुमको लज्जा क्यों नहीं आती? तथा ऐसे स्वकृत कर्म से तुम किसलिए भव सागर में निमग्न होते हो? इससे तुम श्री वीरप्रभु के पास जा कर इसका प्रायश्चित ग्रहण करो। तुम्हारा तप और जन्मनिरर्थक मत करो। जो प्राणी अरिहंत के एक अक्षर पर भी श्रद्धा रखते नहीं, वे प्राणी मिथ्यात्व को प्राप्त करके भवपरंपरा में भटकते रहते हैं।' इस प्रकार स्थविर मुनियों ने जमालि को बहुत प्रकार से समझाया, तथापि उसने अपना कुमत छोड़ा नहीं। मात्र मौन धारण करके ही रहा इसलिए उस कुमतधारी जमालि को छोड़कर कुछ स्थविर मुनि तो शीघ्र ही प्रभु के पास चले गये। और कितनेक उसके साथ रहे।
__ (गा. 57 से 71) प्रियदर्शना ने परिवार सहित स्त्री जाति को सुलभ ऐसे मोह (अज्ञान) से और पूर्व के स्नेह से जमालि का पक्ष स्वीकारा। अनुक्रम से जमालि उन्मत्त होकर अन्य व्यक्तियों को भी अपना मत ग्रहण कराने लगा एवं वे भी फिर उस कुमत को फैलाने लगे। जिनेन्द्र के वचन पर हंस देता और अपने को मैं सर्वज्ञ हूँ ऐसा कहता हुआ जमालि परिवार सहित विहार करने लगा।
(गा. 72) एकदा वह मदोन्मत्त जमालि मुनि श्री वीरप्रभु को चंपापुरी के पूर्णभद्र नामक वन में समवसृत जानकर वहाँ गया और बोला कि – 'हे भगवन्! आपके बहुत से शिष्य छद्मस्थपने में ही केवलज्ञान उत्पन्न हुए बिना मृत्यु को प्राप्त हो गये। परंतु मैं वैसा नहीं हूँ। मुझे तो केवलज्ञान केवलदर्शन अक्षयरूप से उत्पन्न हुआ है। इससे इस पृथ्वी पर मैं भी सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हन्त हूँ। " उसके ऐसे मिथ्या वचन सुनकर गौतम स्वामी बोल उठे, 'अरे जमालि! यदि तू ज्ञानवान् है तो बता कि यह जीव और लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ? इस का प्रत्युत्तर देने में असमर्थ ऐसा वह जमालि कौओ के बच्चे के समान मुख प्रसार कर शून्य हो गया। पश्चात् भगवन्त ने फरमाया कि- जमालि! यह लोक तत्त्व से शाश्वत और अशाश्वत है। उसके समान जीव भी शाश्वत और अशाश्वत है। यह लोक द्रव्यरूप से शाश्वत है और प्रतिक्षण नाश को प्राप्त पर्याय की अपेक्षा से
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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