________________
वह तुरंत ही राजा के हृदय में बस गई । अभय ने अंजली बद्ध होकर राजा को विनति करके विद्यागुरुपने को प्राप्त उस चोर को छुड़वा दिया।
(गा. 110 से 125 )
किसी समय ज्ञातनंदन श्री वीरप्रभु राजगृह में समवसरे! यह सुनकर राजा श्रेणिक भूमि पर स्थित इंद्र हो वैसे बड़े आडम्बर से उनको वंदन करने के लिए चले। उस समय गजेन्द्रों के घंटों की टंकार से वह दिशाओं को परिपूर्ण कर रहा था। हेषारव से परस्पर वार्ता कर रहे हों और वाह्याली रूप रंगभूमि में नट की तरह अश्वों से भूमितल को आच्छादित कर रहा था । आकाश में से उतरते मेघ मंडल की शोभा का अनुसरण करते मयूर रूपी छत्रों से उनकी सेना शोभती थी। वाहन के नृत्य की अपेक्षा अश्व की स्पर्धा से उसका रत्नमय ताडंक नाच रहा था। वह मानो उनके आसन के साथ ही उत्पन्न हुआ हो, वैसा दृष्टिगत हो रहा था । सिर पर पूर्णिमा के चंद्र जैसा श्वेत छत्र धारण किया था, गंगा और यमुना जैसे चंवरों को वारांगना ठुला रही थी और सुवर्ण के अलंकारों को धारण करके भाट चारण उनकी विरुदावली गा रहे थे।
(गा. 126 से 132)
उस समय मार्ग में चलते हुए जन्मते ही तुरंत जिसका त्याग कर दिया हो, ऐसी एक बालिका सैनिकों को दिखाई दी । परंतु मानो नरक का अंश आया हो, वैसे उसके शरीर में से अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही थी । उस दुर्गन्ध को सहन न कर सकने के कारण सायंकाल में सभी ने अपनी नासिका को ढंक कर बंद कर ली। श्रेणिक ने वैसा देखकर पूछा कि 'क्या है ?' तब परिजनों ने जन्मते ही तुरंत छोड़ी हुई उस दुर्गन्धा को बताया । राजा श्रेणिक सदैव अरिहंत के मुखारविन्द से बाहर प्रकार की भावना का श्रवण करते थे, इससे उसे किंचित्मात्र भी जुगुप्सा न आई और तुरंत ही उस बाला को देख कर आगे बढ़ गये। समवसरण में आकर प्रभु को वंदन करके योग्य अवसर पर उस दुर्गन्धा की कथा पूछी।
(गा. 133 से 137)
प्रभु ने फरमाया कि " तुम्हारे समीपस्थ प्रदेश में शाली नामक गांव में धनमित्र नामक एक श्रेष्ठी रहता था। उसके घन श्री नामकी एक पुत्री हुई । किसी समय श्रेष्ठी ने उन साधुओं को प्रतिलाभित करने के लिए धन श्री को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व)
162