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________________ इससे उसने किसी को भी अपनी कन्या दी नहीं। इस बाबत में वह उदासीन वृत्ति धरता था। तब कन्याओं की माता ने उदासीन राजा की येन केन प्रकारेण सम्मत्ति लेकर उनमें से पांच कन्याएं योग्य वर को दे दी। वीतभय नगर के राजा उदायन को प्रभावती दी। चंपापति दधिवाहन राजा को पद्मावती दी। कौशांबी के राजा शतानीक को मृगावती दी। उज्जयिनी के राजा प्रद्योतन को शिवा दी। कुंडग्राम के अधिपति नंदीवर्धन राजा, जो कि वीर भगवंत के ज्येष्ट बंधु थे उनको ज्येष्टा दी। सुज्येष्टा और चिल्लणा ये दोनों कुमारी ही रही। ये दोनों परस्पर रूप श्री की उपमा स्वरूप थी। दिव्य आकृतिवाली और दिव्य वस्त्रालंकारों को धारण करती ये दोनों पुनर्वसु नक्षत्र के दो तारों की तरह सदैव अवियोगी (साथ के साथ) रहती थी। कला कलाप में कुशल और सर्व अर्थ की ज्ञाता वे दोनों मानों मूर्तिमान् सरस्वती हो, वैसे अंदर अंदर विद्या विनोद करती थी। दोनों साथ में देवपूजा करती, साथ ही धर्मश्रवण करती और एक स्वरूप वाली हो वैसे अन्य सर्व कार्य साथ ही करती थी। (गा. 184 से 196) एक वक्त कोई एक स्थविरा तापसी सुज्येष्ठा और चिल्लणा से अलंकृत ऐसे कन्याओं के अंतःपुर में आई। वहाँ उसने अज्ञानियों की सभा की भांति उनके समक्ष भी शौचमूल धर्म ही पाप का नाश करने वाला है, “ऐसा गाल फुलाकर कहा। यह सुन सुज्येष्ठा बोली-“अरे! शौच जो कि अशुभ आश्रवरूप है और अशुभ आश्रव पाप का हेतु है, तो वह पाप का छेदन किस प्रकार का सकता है?' इस प्रकार कहकर कूए में मेंढक आदि की युक्ति वाले दृष्टान्त से गुणों में ज्येष्ठ सुज्येष्ठा ने उसके शौचमूल धर्म का खंडन किया। पश्चात् मानो उसके मुख को मुद्रित किया हो, वैसे वह तापसी निरुत्तर हो गई। तब अंतःपुर की दासियाँ मुख मोड़ मोड़ कर उस पर हंसने लगी और अपनी स्वामिनी की जय से उन्मत्त हुई उन दासियों ने खूब कोलाहल किया और उसे कंठ से पकड़ कर निकाल दिया। वह तापसी लेने की अपेक्षा खो बैठी हो, वैसे पूजा के लिए जाने पर उल्टा अनर्थ को प्राप्त हुई। तापसी ने वहाँ से निकलते समय विचार किया कि, यह सुज्येष्ठा बहुत गर्वीली है, इसलिए इसे बहुत सी सपत्नियों में डाल कर दुःख का पात्र करूं।' ऐसा सोचकर सर्व कलाओं में चतुर उस तापसी ने पिंडस्थ ध्यान की लीला से सुज्येष्ठा का रूप मन में धारण करके एक पट पर आलेखित कर लिया। (गा. 197 से 205) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 137
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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