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वह स्थान सेठ को बता दिया। तब धनावह सेठ ने स्वयं ही जाकर द्वार खोला। वहाँ चोरों द्वारा खींची हुई लता के समान क्षुधा, तृषा से पीड़ित नई पकड़ी हुई हथिनी की तरह बेड़ियों से बद्ध, भिक्षुकी की भांति मुंडित मस्तक एवं अश्रुपुरित नेत्रकमल वाली चंदना का धनावह सेठ ने अवलोकन किया। सेठ ने उसे कहा, वत्से! तू स्वस्थ हो जा, ऐसा कहकर नेत्रों से आंसू टपक रहे हैं जिनके ऐसे सेठ उसे भोजन कराने के लिए रसवती लेने के लिए जल्दी जल्दी रसोई में गये। परंतु दैवयोग से रसोईगृह में किंचित् मात्र भी अवशेष भोजन दृष्टिगत नहीं हुआ। एक कोने में रखे सूपड़े में कुल्माष (उड़द) दिखाई दिये। उसे लेकर सेठ ने चंदना को दिये, और कहा कि, वत्से! मैं तेरी बेड़ियाँ तुड़वाने के लिए लुहार को बुला लाता हूँ, तब तक तू इन कुल्माष का भोजन कर। ऐसा कह कर सेठ बाहर गये। तब चंदना खड़ी खड़ी ही यह विचार करने लगी कि, 'अहो! कहाँ मेरा राजकुल में जन्म? और कहाँ इस समय यह स्थिति? इस नाटक जैसे संसार में क्षणभर में वस्तुमात्र अन्यथा हो जाती है, यह मैंने स्वयं ने अनुभव कर लिया। अहो! अब मैं इसका क्या प्रतिकार करूँ, आज अट्ठम के पारणे पर ये कुल्माष मुझे उपलब्ध हुए हैं, परंतु यदि कोई अतिथि आवे तो उनको देकर मैं आहार करूं, अन्यथा मैं नहीं खाऊंगी।' ऐसा विचार आते ही उसने द्वार पर दृष्टि डाली। इतने में तो श्री वीर प्रभु भिक्षा के लिए विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे। उनको देखते ही 'अहो! कैसा शुभपात्र! अहो! कैसा उत्तम पात्र! अहो यह कैसा मेरे पुण्य का संचय। कि ये महात्मा भिक्षा के लिए अचानक ही यहाँ पधारे। ऐसा चिंतन करके वह बाला कुलमाषवाला वह सूपड़ा हाथ में लेकर एक पैर देहली के बाहर और एक पैर देहली के अंदर रखकर खड़ी रही। बेड़ियों के कारण देहली का उल्लंघन करने में अशक्त ऐसी वह बाला वहाँ से ही आर्द्रहृदयपूर्ण भक्ति से भगवंत के प्रति बोली- हे प्रभो! यद्यपि यह भोजन आपके लिए अनुचित हैं, तथापि आप परोपकारी हैं, इसलिए इसे ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह करो। द्रव्यादि चारों प्रकारों से शुद्ध रीति से अभिग्रह पूर्ण हुआ जानकर प्रभु ने उन कुल्माष की भिक्षा लेने के लिए अपने कर (हाथ) पसारे। (उस समय चंदना के नेत्र में आंसू नहीं थे, इससे अभिग्रह अपूर्ण जानकर प्रभु वापिस लौट गए। इसलिए चंदना को अपार दुःख होने पर उसके आंखों में आंसू आ गए। अभिग्रह पूर्ण हुआ जानकर प्रभु वापिस लौटे और आहार ग्रहण किया। ऐसा अन्यत्र कथन है।) उस समय 'अहो! मुझे धन्य है' ऐसा ध्यान करती हुई चंदना
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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