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इस प्रकार एक रात्रि में कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु के ऊपर उस अधम देव संगम ने बीस बड़े बड़े उपसर्ग किये। प्रातःकाल में उसने विचार किया कि 'अहो! ये महाशय मर्यादा से समुद्र की तरह जरा भी चलित नहीं हुए, तो अब प्रतिज्ञा भ्रष्ट होकर क्या मैं वापिस स्वर्ग में जाऊं? परंतु ऐसे तो कैसे जाया जाय? इसलिए चिरकाल तक यहीं रहकर इस मुनि को अनेक उपसर्ग करके किसी भी प्रकार से क्षुभित करूं।
__ (गा. 281 से 283) प्रातःकाल में सूर्य की किरणों से व्याप्त ऐसा मार्ग होने पर प्रभु युगमात्र दृष्टि डालते हुए वालुक नामक गांव की ओर चल दिये। मार्ग में उस अधम संगम ने पाँच सौ चोर और वेलु के सागर जैसी बहुत सी रेत विकुर्वित कर दी। वे पाँचसौ चोर प्रभु को 'मामा! मामा!' ऐसे उच्च स्वर से कहते हुए प्रभु को इस प्रकार आलिंगन देते हुए लिपट गए कि जिससे पर्वत हो तो फूट जाय। किन्तु उससे क्षोभ पाए बिना समता रस के सागर प्रभु, जानु तक धूल में पैरों को धंसाते धंसाते बालुका गाँव आए। इस प्रकार स्वभाव से ही कर बुद्धि वाला वह देव नगर में, गाँव में, वन में या जहाँ कहीं भी प्रभु पधारते उनके पीछे पीछे जाकर अनेक प्रकार के उपसर्ग करता था। इस तरह उपसर्ग करते करते उस संगम देव के छः महिने व्यतीत हो गए। अन्यदा प्रभु विहार करते हुए किसी गोकुल में पधारे। उस समय वहाँ गोकुल में कोई उत्सव हो रहा था। प्रभु ने छः महिने तक उपवास किये थे। तो प्रभु पारणा करने हेतु गोकुल में भिक्षा के लिए पधारे। परंतु जिस जिस घर में स्वामी भिक्षा के लिए पधारते, वह अधम देव वहाँ आहार को दूषित करने लगा। प्रभु ने उपयोग लगा कर देखा तो वह अधम देव अभी निवृत्त नहीं हुआ ऐसा जानकर प्रभु उस गोकुल गाँव से बाहर आकर प्रतिमा धारण करके स्थित हो गये। उस देवता ने अवधिज्ञान से देखा कि 'अब भी इस मुनि के परिणाम भग्न हुए या नहीं?' तो उसे ज्ञात हुआ कि 'अरे! अभी भी वे क्षोभ प्राप्त नहीं हुए। तो उसने विचार किया कि, 'छः महिने तक मैंने लगातार इनको उपसर्ग दिये, तो भी समुद्र के जल से सह्यगिरि के समान ये मुनि 'कंपित नहीं हुए, और अभी भी अधिक समय तक भी इनको उपसर्ग दूं तो भी ये ध्यान से चलायमान नहीं होंगे। पर्वत को तोड़ने में जैसे हाथी निष्फल हो जाता है, उसी प्रकार इसमें मेरा प्रयास भी व्यर्थ गया। हा! हा!
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)