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मोगरे और सिंदुवार के पुष्पों से हेमंत और बसंतऋतु को गणिका की तरह साथ में निभाती शिशिर लक्ष्मी वृद्धि को प्राप्त हुई। इस प्रकार क्षणमात्र में सर्वऋतुएं एक साथ प्रगट होते ही कामदेव की सेना जैसी देवांगनाएं प्रगट हो गई। भगवंत के सम्मुख आकर उन रम्य अंगवाली रमणियों ने कामदेव के विजयी मंत्रास्त्र के जैसा संगीत प्रारंभ किया। कोई शुद्ध चित्त से लय के साथ गांधारग्राम से अनेक रागों की जातियों को गाने लगी। कोई प्रवीण देवांगना क्रम और उत्क्रम से व्यंजन और धातुओं को स्पष्ट करती मधुर वीणा बजाने लगी। कोई कूट, नकार और घोंकर इन तीन प्रकार के मेघ जैसी ध्वनि करती हुई त्रिविध मृदंग को बजाने लगी। कोई आकाश और पृथ्वी में उछलती, विविध हावभाव और नए नए दृष्टिभाव करती हुई नाचने लगी। दृढ़ अंगहार
और अभिनय से कंचुकी को तोड़ता एवं शिथिल केशपाश को बांधती हुई, अपनी भुजा के मूल को बताने लगी। कोई दंडपाद आदि अभिनव के मिष से अपनी गोरुचंदन जैसी और सांथल (जंघा) के मूल को बारबार बता रही थी। कोई शिथिल हुए अधोवस्त्र की ग्रंथी को दृढ करने की लीला से अपने वापी जैसे नाभिमंडल को बता रही थी। कोई ईभदंत नामक हस्ताभिनय का मिष करके बारम्बार गाढ़ालिंगन की संज्ञा को कर रही थी। कोई नीवी को दृढ़ करने के छल से उत्तरीय वस्त्र को चलाकर अपने नितंबिब को दिखा रही थी। कोई विशाल लोचना देवी अंगभंग के बहाने से पुष्ट और उन्नत स्तनवाले अपने वक्षस्थल को चिरकाल तक दर्शा रही थी। “अरे भद्र! यदि तुम वास्तव में वीतराग हो तो, क्या तुम किसी वस्तु पर राग का विस्तार नहीं करते? यदि तुम शरीर पर भी निरपेक्ष हो तो वह हमको क्यों नहीं अर्पण करते? यदि दयालु हो तो अकस्मात् उत्कृष्ट धनुष लेकर हम पर उठे उस विषमायुध कामदेव से हमारी रक्षा क्यों नहीं करते? प्रेम के लालची होने पर भी यदि हमारी कौतुक से उपेक्षा करते हो तो वह कौतुक क्षणमात्र के लिए करना तो घटित है, किन्तु हमारे मरणांत तक करना योग्य नहीं है। हे स्वामिन्! अब कठिनता छोड़ दो और हमारे मनोरथ को पूर्ण करो। प्रार्थना से विमुख मत होओ। इस प्रकार कोई स्त्री तो बारम्बार कहने लगी। इस प्रकार देवांगनाओं के गीत, वाद्य, नृत्य, अंगविकार और चाटुकारी वचनों से भी प्रभु जरा भी क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए।
(गा. 2 42 से 280)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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