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लगे। इसलिए मैंने कह दिया ‘ब्रह्मदत्त को कोई बाघ खा गया।' वे बोले कि वह स्थान बता। इसलिए इधर उधर घूमता मैं आपके दर्शन मार्ग में आया
और मैंने आपको भाग जाने का ईशारा किया। बाद में किसी तापस ने मुझे एक गुटिका दी थी, तो वह मैनें मुँह में रखी। उस गुटिका के प्रभाव से मैं संज्ञा रहित होकर गिर पड़ा। तब ‘अरे! यह तो मर गया' ऐसा सोचकर वे मुझे छोड़ कर चल दिये। उनके जाने के बहुत देर के बाद मैंने वो गुटिका मुँह में से निकाली। तब नष्ट हुए अर्थ की भांति आपको ढूँढने के लिए घूमता हुआ मैं किसी एक गांव में आया। वहाँ कोई उत्तम तापस मुझे दिखाई दिया। मानों तप की राशि हो वैसे उस तापस को मैंने प्रणाम किया। मुझे देखकर वे तापस बोले - 'वरधनु मैं तेरे पिता धनु का मित्र हूँ। हे महाभाग! तेरे साथ भगा ब्रह्मदत्त कहाँ है? मैनें कहा 'सकल विश्व देखा, परन्तु उसका पता नहीं लगा। मेरी ऐसी दुष्कथा रूपी धूएँ से जिनका मुख म्लान हो गया ऐसे उन तापस ने कहा कि जब वह लाक्षागृह दग्ध हो गया, तब प्रातः काल दीर्घराज ने देखा तो उसमें से एक ही जला हुआ मुर्दा निकला। तीन मुर्दे निकले नहीं। अन्दर और तलाश करने पर सुरंग दिखाई दी। उसके अंत में अश्व के पदचिह्न देखे। तब तुम दोनों ही धनुमंत्री की बुद्धि से भाग गए हो, ऐसा सोच कर दीर्घ राजा धनुमंत्री पर क्रोधित हुए। तब तुम दोनों को बांधकर लाने के लिए दीर्धराज ने प्रत्येक दिशा में सूर्य के तेज जैसे अस्खलित गतिवाले घुड़सवार भेजने की आज्ञा दी। धनुमंत्री तो तुरंत ही वहाँ से भाग गए। और आपकी माता को तो दीर्घराजा ने नरक सदृश चांडाल के पाडे में डाल दिया। गुमडे पर छाला हुआ हो वेसे उस तापस से यह वार्ता सुनकर आर्त हुआ मैं दुःख पर दुःख पाकर कांपिल्य नगर गया। वहाँ कपट से कापालिक का वेश लेकर चांडाल के पाडे में निरंतर घर-घर घूमने लगा, बैठने लगा और देखने लगा। वे लोग जब मुझे घूमने का कारण पूछते, तब मैं कहता कि 'मैं मातंगी (चांडाली) विद्या साधन कर रहा हूँ, उसका ऐसा कल्प है। घूमते घूमते वहाँ के रक्षक के साथ मेरी विश्वासपात्र मैत्री हो गई। “माया से क्या साध्य नहीं होता।"
(गा. 269 से 290) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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