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वसंतपुर नगर में शबर सेन नामका राजा था। मेरे पिता उनके पुत्र हैं। मेरे पितामह की मृत्युपरान्त राजगद्दी पर मेरे पिता आसीन हुए। परन्तु क्रूर गोत्रिजनों ने उनको बहुत हैरान किया। इससे वे बलवाहन आदि लेकर इस पल्ली को आश्रय करके रह रहे हैं। यहाँ रहने पर भी बरु के वृक्ष को जल के वेग की भांति उन्होंने भिल्ल लोगों को परास्त कर दिया है और ग्राम आदि का घात करके अर्थात् ग्राम लूटकर या डकैती डालकर अपने परिवार का पोषण कर रहे हैं। चार उपायों के अंत में जैसे लक्ष्मी प्राप्त होती है, वैसे ही चार पुत्रों के पश्चात् मैं उनको अतिप्रिय पुत्री हुई। मुझे यौवनवती देखकर मेरे पिता ने मुझे कहा कि जो सर्व राजा तेरी अपेक्षा करे, उनको तू दृष्टि मात्र से देखना और उनमें से जो तुझे योग्य लगे, उसके लिए तुझे मुझे कहना। पिता के कथनानुसार उसके लिए तुझे मुझे कहना। उसके पश्चात् मैं चक्रवर्ती के समान सरोवर के तीर पर रहकर सर्व पांथजनों को देखती रहती थी। ऐसे में जहां मनोरथ की भी गति न हो वैसे अति दुर्लभ ऐसे आप मेरे भाग्य की वृद्धि से यहाँ आ चढ़े और मेरे साथ पाणिग्रहण करके मुझे कृतार्थ किया।
(गा. 246 से 268) एक वक्त वह पल्लीपती किसी गांव को मारने के लिए चला। तब ब्रह्मदत्त कुमार भी उनके साथ गया। क्योंकि "क्षत्रियों का ऐसा ही कर्म है। तब भीललोग तो गांव लूटने लगे। इतने में मंत्रीपुत्र वरधनु सरोवर के तट पर आकर हंस की तरह कुमार के चरण कमल में गिर पड़ा। फिर कुमार के कंठ से लिपट कर वह मुक्त कंठ से रो पड़ा, क्योंकि इष्ट जन के दर्शन से पूर्व दुःख भी ताजा हो जाता है। “हे नाथ! आपको वटवृक्ष के नीचे छोड़ मैं जल लेने गया था। वहाँ आगे जाने पर एक अमृत के कुंड जैसा एक विशाल सरोवर मुझे दिखाई दिया। उसमें से कमलपत्र में जल लेकर लौट कर आ रहा था कि इतने में तो मानो यमदूत हों, वैसे अनेक कवचधारी सुभटों ने मुझे रोक लिया। वे मुझे पूछने लगे कि 'हे वरधनु! बता, ब्रह्मदत्त कहाँ है ? मैंने कहा कि 'मैं नहीं जानता।' तब वे चोर की तरह मुझे मारने
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)