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ब्रह्मा के चतुर्मख के समान उसके भी चार प्रियमित्र थे। पहला काशी देश का राजा कटक, दूसरा हस्तिनापुर का राजा कणेरदत्त, तीसरा कौशलदेश का राजा दीर्घ और चौथा चंपानगरी का राजा पुष्पचूल था। ये पांचों ही मित्र स्नेह से नंदनवन में कल्पवृक्षों के समान अपने अंतःपुर के साथ एक - एक नगर में एक-एक वर्ष रहते थे। एक बार वे बारी के अनुसार ब्रह्मराजा के नगर में एकत्रित हुए। वहाँ क्रीड़ा करते हुए काल व्यतीत हुआ। ब्रह्मदत्त को जब बारह वर्ष पूर्ण हुए उस समय ब्रह्मराजा मस्तक वेदना से परलोक सिधार गए । ब्रह्मराजा की उत्तरक्रिया करके मूर्तिमान चारों उपाय जैसे वे कटक आदि चारों मित्र इस प्रकार विचार करने लगे कि “अपने मित्र ब्रह्मराजा का कुमार यह ब्रह्मदत्त जब तक बालक है, तब तक हममें से एक-एक जन को एक-एक वर्ष पहरेदार के समान उसकी और राज्य की रक्षा के लिए यहाँ रहना योग्य है ।" ऐसा निर्णय करके प्रथम दीर्घ राजा उस मित्र के राज्य की रक्षा करने के लिए वहाँ रहे। बाकी तीनों ही मित्र अपने राज्य में चले गए। तब बुद्धिभ्रष्ट हुआ दीर्घ राजा रक्षक बिना के क्षेत्र को जैसे सांढ भोगता है, वैसे ब्रह्मराजा के राज्य की समृद्धि को स्वच्छंद होकर भोगने लगा । वह मूढ़ बुद्धि दूसरे के मर्म को दुर्जन लोग खोजते हैं, वैसे लंबे समय से गुप्त रहे कोश (भंडार) को खोजने लगा । " मनुष्यों को आधिपत्य ही अधर्मकारक है।"
(गा. 108 से 118)
एक वक्त कामदेव के बाण से बेधे हुए, दीर्घराजा ने चुलनी देवी के साथ एकांत में ब्रह्मदत्त के विवाह के बहाने अतिमात्र मसलत की। उसमें उन्होंने ब्रह्मराजा के सुकृत आचार की और लोगों की अवगणना की । मोहग्रसित चुलनी देवी ने उसको स्वीकार किया, “क्योंकि इंद्रियां अति दुर्वार होती है।" ब्रह्मराजा के राज्य में रहकर चुलनी ने पति का प्रेम और दीर्घ राजा ने मित्र का स्नेह छोड़ दिया । " अहो ! कामदेव सर्वशक्तिमान (सर्वंकष ) है।" कौए और मछली की तरह इच्छानुसार सुखपूर्वक विलास करते हुए उन दोनों को मुहूर्त के समान बहुत दिन व्यतीत हो गये ।
(गा. 119 से 122)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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