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हजार पत्नियों का परिवार लेकर उस चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न सुनंदा मुनियों को वंदन करने के लिए आई । वहाँ पर संभूतमुनि के चरणकमल में केशराशि को ललित करती और मुख से पृथ्वी को चंद्रवाली रचती सुनंदा उनके चरणकमल में नमन करने लगी। उस राजरमणी के केश का स्पर्श होते ही संभूतमुनि तत्काल ही रोमांचित हो गए। कारण कि कामदेव निरंतर छल की ही शोध करता है । राजा सनत्कुमार तो उन मुनियों को वंदन करके आज्ञा लेकर अंतः पुर सहित वहाँ से अपने स्थानक पर आ गये ।
(गा. 86 से 96 )
उनके जाने के पश्चात् कामराग से पराभव को प्राप्त हुए संभूतमुनि ने इस प्रकार नियाणा किया कि यदि जो मेरे किए इस दुष्कर तप का फल हो तो मैं भावी जन्म में ऐसी स्त्रीरत्न का पति बनूँ । चित्रमुनि बोले कि अरे भद्र! इस मोक्ष दायक तप का फल ऐसा क्यों चाहते हो ? मुकुट के योग्य ऐसे रत्न से चरणपीठ क्यों बनाते हो ? मोह के वशीभूत होकर ऐसा नियाणा अभी भी तुम छोड़ दो और तुम्हारा यह नियाणा मिथ्या दुष्कृत हो, क्योंकि आपके जैसे मनुष्य मोह से बैचेन नही हैं। " अहो ! विषय इच्छा महाबलवान् है !” पश्चात् दोनों मुनि परिपूर्ण अनशन को पालकर आयुष्य कर्म का क्षय करके मृत्यु को प्राप्त करके सौधर्म देवलोक में सुंदर नामक विमान में देव बने । (गा. 97 से 102 )
चित्र का जीव पहले देवलोक से च्यवकर पुरिमताल नगर में एक धनाढ्य वणिक का पुत्र हुआ और संभूत का जीव वहाँ से च्यवकर कांपिल्य नगर के ब्रह्मराजा की स्त्री चुलनी देवी के उदर में अवतरित हुआ । चौदह महास्वप्न जिन्होंने चक्रवर्ती का वैभव सूचित किया है, ऐसा वह सुवर्ण के वर्णवाला और सात धनुष जैसी ऊँची काया वाला हुआ । ब्रह्म के समान आनंद से ब्रह्मराजा ने ब्रह्मांड में ब्रह्मदत्त उसका नाम रखा । जगत् को नेत्ररूपी कुमुद से हर्षित करता और कला के कलाप से पोषण करता, वह निर्मल चंद्रमा के समान वृद्धिंगत होने लगा ।
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(गा. 103 से 107)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व )