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________________ कनकवती बोली – अरे! इंद्र के सामनिक देव वे कहाँ और कीट प्रायः मैं मानुषी कहाँ ? उन्होंने मेरे पास जो तुमसे दौत्यकर्म कराया है, वह तो अनुचित है और क्रीड़ामात्र है। क्योंकि पहले भी कभी मानुषी स्त्री का देवता के साथ संबंध हुआ नहीं है। वसुदेव बोले हे भद्रे। यदि तुम देवता के आदेश को अन्यथा करोगी तो दवदंती के तुल्य विपुल अनर्थ को प्राप्त करोगी। कनकवती बोली धनद कुबेर इतने अक्षर सुनने से मेरे पूर्व जन्म के संबंध के कारण किसी प्रकार उनके ऊपर मेरा मन उत्कंठित होता है, परंतु इस दुर्गंधी औदारिक शरीर के दुर्लभ को अमृतभोगी देवता पुत्र सहन नहीं कर सकते ऐसी श्री अहँत प्रभु के वचन है। अतः दौत्य के बहाने गुप्त रहे हुए आप ही मेरे पति हैं। इसलिए उत्तर दिशा के पति कुबेर के पास जाकर आप मेरे वचन कहना कि मैं मानुषी हूं, जो कि आपके दर्शन के भी योग्य नहीं हूँ। मैं जो कि सप्तधातुमय शरीरवाली हूँ, उसको आप प्रतिमा रूप में मान्य हो। (गा. 160 से 169) इस प्रकार कनकवती के वचन सुनकर कोई भी न देखे वैसे अदृश्यरूप से जिस मार्ग से आए उसी मार्ग से वसुदेव वापिस कुबेर के पास लौटे। जब वसुदेव ने वह वृत्तांत कहना प्रारंभ किया, तब कुबेर ने ही कह दिया कि वह सब वृत्तांत मैंने जान लिया है। तब कुबेर ने अपने सामनिक देवताओं के समक्ष वसुदेव की प्रशंसा की यह महापुरूष कोई निर्विकारी चरित्र है इस प्रकार प्रशंसा करके संतुष्ट हुए कुबेर ने सुरेंद्रप्रिय नाम के दिव्यगंज से वासित ऐसे दो देवदूष्य वस्त्र, सूरप्रभु नाम का शिरोरत्न मुकुट, जलमार्ग नाम के दो कुंडल, शशिमयूख नाक के दो केयूर, बाजुबंध, अर्धशारदा नामक नक्षत्रमाला, हार सुदर्शन नाम के विचित्र मणि से जड़ित दो कड़े स्मरदारूण नामक विचित्र रत्नमय कटिसूत्र, दिव्यपुष्प माला और दिव्य विलेपन उसी समय वसुदेव को दिये। वे सर्वआभूषण आदि अंग पर धारण करने से वसुदेव कुबेर जैसे दिखाई देने लगे। इस प्रकार कुबेर से भी सत्कार, सम्मान पाए वसुदेव को देखकर उनके साले आदि जो विद्याधर साथ आए थे, वे सर्व अत्यंत प्रसन्न हुए। हरिश्चंद्र राजा भी उसी समय कौतुक से वहाँ आकर कुबेर को प्रणाम करके अंजली बद्ध हो बोले - हे देव! आज आपने इस भारतवर्ष पर बहुत बडा अनुग्रह किया है कि जिससे मनुष्य का स्वंयवर देखने की इच्छा से यहाँ स्वयमेव पधारे। ऐसा कह कर राजा ने तत्काल त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 87
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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