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जिस दिन दीक्षा ली उसी दिन गजसुकुमाल मुनि प्रभु की आज्ञा लेकर सायंकाल में श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में रहे। इतने में किसी कारण से बाहर गये हुए सोमशर्मा ब्राह्मण ने उनको देखा। उनको देखकर सोमशर्मा ने सोचा कि, यह गजसुकुमाल वात्सव में पाखंडी है, इसने अनिच्छा से मुझे अपमानित करने के दुराशय से ही मेरी पुत्री के साथ विवाह किया। ऐसा सोचकर महाविरोधी बुद्धि वाले सोमशर्मा ने अत्यन्त क्रोधित होकर जलती चिता के अंगारे से भरी घड़े की सिगड़ी जैसी बना उनके सिर पर रख दी । उससे अत्यन्त दहन होने पर भी उन्होंने समाधिपूर्वक सब सहन किया । इससे इन गजसुकुमाल मुनि के कर्मरूप ईंधन उसमें जलकर भस्म हो गए और तत्काल केवलज्ञान को प्राप्त करके आयुष्य पूर्ण होने पर वे मुनि मोक्ष में पधार गये ।
(गा. 130 से 133)
प्रातः कृष्ण अपने परिवार सहित रथ में बैठकर पूर्ण उत्कंठित मन से गजसुकुमाल मुनि को वंदन करने के लिए चले । द्वारका से बाहर निकले। इतने में एक वृद्ध ब्राह्मण सिर पर ईंट लेकर किसी देवालय की ओर ले जाते दिखलाई दिया, उस वृद्ध पर द्रवित होकर उसमें से एक ईंट स्वयं उस देवालय में ले गये। तब कोटिगम लोग भी उसी प्रकार एक-एक ईंट ले गये । इससे उस वृद्ध ब्राह्मण का कार्य हो गया । उस ब्राह्मण को कृतार्थ करके कृष्ण श्री नेमिनाथ प्रभु के पास आए। वहाँ स्थापित किए भंडार के जैसे अपने भाई गजसुकुमाल की वहाँ देखा नहीं। तब कृष्ण ने भगवंत को पूछा कि प्रभो! मेरे भाई गजसुकुमाल मुनि कहाँ है ? भगवंत ने कहा कि 'सोमशर्मा ब्राह्मण के हाथ से उनका मोक्ष हो गया।' यह बात विस्तारपूर्वक सुनने से कृष्ण मूर्च्छित हो गये। थोड़ी देर में चेतना आने पर कृष्ण ने पुनः पूछा- भगवन्! इस मेरे भाई का वध करने वाले ब्राह्मण को मैं कैसे पहचानूँ ? प्रभु बोले- 'कृष्ण ! इस सोमशर्मा के ऊपर तुम क्रोध मत करो, क्योंकि यह तुम्हारे भाई के साथ मोक्षप्राप्ति में सहायक हुआ है । जिस प्रकार तुमने उस वृद्ध ब्राह्मण की सहायता की तो उसकी सर्व इंटें स्वल्प समय में ही इच्छित स्थान पर पहुँच गई । यदि सोमशर्मा तुम्हारे भाई पर ऐसा उपसर्ग न करता तो कालक्षेप बिना उसकी सिद्धि किस प्रकार होती ? अब तुम्हें उसे पहचानना ही है तो यहाँ से वापिस लौटते समय नगरी में घुसते ही तुमको देखकर जिसका मस्तक फट जाये और वह मर जाए, उसे तुम्हारे भाई का वध करने वाला जानना । तब कृष्ण ने रुदन करते हुए अपने भाई का उत्तर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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