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________________ करना चाहिए तथा जीव मिश्रित अचारों का कि जिसमें दीर्घकाल तक रहने से बहुत से त्रस जंतु उत्पन्न होते हों, उनका भी त्याग करना चाहिए। (गा. 362 से 364) ऐसी प्रभु की देशना सुनकर वरदत्त राजा संसार से परम वैराग्य प्राप्त कर व्रत लेने को उत्सुक हो गये। तब कृष्ण ने भगवंत को नमस्कार करके पूछा कि 'हे भगवन्! आप पर सभी जन अनुरागी हैं, परंतु राजीमति को सर्व की अपेक्षा विशेष अनुराग होने का क्या कारण है? वह फरमाइए। तब प्रभु ने धन और धनवती के भव से लेकर आठ भवों का उसके साथ का संबंध कह सुनाया। तब जोड़ कर प्रभु से विज्ञप्ति की कि- 'हे नाथ! स्वाति नक्षत्र में मेघ से पुष्करों (सीपों) में मुक्ताफल उत्पन्न होते हैं, वैसे आपसे प्राप्त श्रावक धर्म भी प्राणियों को महाफलदायक होता है। परंतु आप तो गुरू रूप हो आपसे मिलने व दर्शन करने मात्र से मैं संतोष प्राप्त नहीं करता, क्योंकि कल्पवृक्ष प्राप्त होने पर मात्र उसके पत्तों की इच्छा कौन करे? इसलिए मैं तो आपका प्रथम शिष्य होना चाहता हूँ। अतः हे दयानिधि! मुझ पर दया करके मुझ संसारतारिवी दीक्षा दो। इस प्रकार राजा के कहने पर प्रभु ने तत्काल दीक्षा दी तथा उसके पश्चात् दो हजार क्षत्रियों ने दीक्षा ग्रहण की। (गा. 365 से 371) पूर्व में धन के भव में जो धनदेव और धनदत्त नाम के दो बंधु थे वे और अपराजित के भव में विमलबोध नामका जो मंत्री था वह, तीनों स्वामी के साथ में भवभ्रमण करके इस भव में राजा हुए थे और समवसरण में आए हुए थे। उनको राजीमति के प्रसंग से अपना पूर्व भव सुनने में आने पर शीघ्र ही जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे अपूर्व वैराग्य संपत्ति को प्राप्त करके उन्होंने श्री अरिष्टनेमि प्रभु के पास उसी वक्त व्रत ग्रहण किया। तब जगद्गुरु नेमिनाथ प्रभु ने उनके साथ वरदत्त आदि ग्यारह गणधरों की विधिपूर्वक स्थापना की और उन्होंने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य त्रिपदी का उपदेश दिया। उस त्रिपदी के अनुसार उन्होंने शीघ्र ही द्वादशांगी की रचना की। बहुत सी कन्याओं से घिरी हुई यक्षिणी नाम की राजपुत्री ने उसी समय दीक्षा ली, तब उसे प्रभु ने प्रवतिग्नी पद पर स्थापित किया। दश दशार्द, उग्रसेन, वासुदेव, लगणा और प्रद्युम्न आदि कुमारों ने श्रावक व्रत ग्रहण किया। शिवा, रोहिणी, देवकी तथा 266 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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